शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

हम अब भी लालगढ़ में हैं

हम अब भी लालगढ़ में हैं, ऐसा कहना है लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) के आदिवासी नेताओं का. मंगलवार, 30 जून को आन्दोलनकारी आदिवासी नेता चत्रधर महतो ने इस बात से इंकार किया कि वह लालगढ़ छोड़कर भाग गया है. उसने कहा कि वह अभी भी पश्चिमी बंगाल के इस अशांत इलाके मेंमेरे अपने लोगों के साथहै. ” मैं अभी भी लालगढ़ में रुका हुआ हूँ और मेरे इस क्षेत्र से भागने का सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि मैंने कोई जुर्म नहीं किया”, ‘पुलिस अत्याचार के खिलाफ गठित लोक समिति’ (PCAPA) जिसने सात महीने पहले एक वस्तुत: ” मुक्त क्षेत्र की स्थापना के खिलाफ नेतृत्व किया था, के मुखिया महतो का ऐसा कहना है. महतो और एक अन्य PCAPA के सदस्य एक प्राइवेट बंगाली टेलिविज़न चैनल पर बातचीत कर रहे थे. महतो ने स्टार आनंद के साथ टेलीफोन इंटरव्यू देते हुए कहा,

लालगढ़ से भागने का सवाल ही नहीं पैदा होता. मैं पूरी तरह से लोगों के साथ हूँ और उनके साथ बना रहूँगा. पुलिस अत्याचार के खिलाफ लालगढ़ में मैंने एक जनवादी लहर शुरू की थी.”

उन्होंने कहा कि राज्य सरकार झूठ द्वारा उसका सम्बन्ध माओवादी गुरिल्लाओं के साथ जोड़कर उसकी छवि को दूषित करने की कोशिश कर रही है. उन्होंने यह भी कहावे मुझे माओवादी सिद्ध करना चाहते हैं जोकि मैं नहीं हूँ.”

पहले सुरक्षा बलों और राज्य सरकार का कहना था कि PCAPA के महतो, सिद्धू सोरेन और कोटेश्वर राव किशनजी और बिकाश जैसे कुछ अग्रणी नेता अशांत क्षेत्र से उस वक्त से भगौड़े हैं जब 18 जून को केंद्रीय अर्धसैनिक और राज्य पुलिस के द्वारा राज्य की राजधानी कोलकत्ता से 200 किलोमीटर दूर संयुक्त सुरक्षा आपरेशन शुरू हुआ. पुलिस का कहना था कि महतो भाग खडा हुआ था और उसने बांकुड़ा जिले में पनाह ले ली थी और सोरेन ने पश्चिमी मिदनापुर के शलबोनी में जबकि दो बड़े माओवादी पड़ोस के झारखण्ड की ओर कूच कर गए. सोरेन ने टेलिविज़न चैनल से यह भी कहा कि

मैं अब कांटापहाड़ी क्षेत्र में हूँ. मैं क्यों भागूं जब मैंने कुछ गलत नहीं किया है? हमने तो केवल पुलिस संत्रास विरुद्ध अपनी आवाज उठाई है जो कि हमारा जनवादी अधिकार है”. “हमारा आंदोलन बंद नहीं किया जा सकता जब तक कि वे (बल) अनावश्यक रूप से हमारी महिलाओं और बच्चों को तंग करना बंद नहीं करते. अब हम भविष्य की कार्रवाई की योजना पर काम कर रहे हैं.”, ऐसा उनका कहना है.

लालगढ़ तब से उबल रहा है जब पश्चिमी बंगाल के मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव भटाचार्य और दो अन्य केंद्र सरकार के मंत्री श्री राम विलास पासवान और श्री जितिन प्रसाद के पथरक्षक दल के रूट पर बारूदी सुरंग फटी थी. इस के बाद पुलिस पर अत्याचारों का आरोप लगाते हुए स्थानीय क्रुद्ध आदिवासियों ने, जिन्हें माओवादियों का समर्थन हासिल था, आन्दोलन शुरू किया और पश्चिमी मिदनापुर जिले से इस क्षेत्र को काटते हुए और सिविल प्रशासन को खदेड़कर वस्तुतः प्रशासन अपने हाथ में ले लिया. राज्य के तीन पश्चिमी जिलों मिदनापुर, बांकुडा और पुरुलिया के इक्कीस पुलिस स्टेशनों के क्षेत्र में माओवादी सक्रिय हैं. Fraternally, PratyushGet Yourself a cool, short @in.com Email ID now!

pratyush1917@in.com द्वारा marxist-leninist-list@lists.econ.utah.edu पर प्रेषित ईमेल से साभार

इस चिट्ठे की ओर से

विकास तो होना ही चाहिए, विकास उनके लिए सर्वोपरि है चाहे इसके लिए कोई अपनी ज़र-ज़मीन से उखड जाता है. यह बात नहीं है कि आदिवासियों की भलाई के लिए उन्हें माओवादियों से मुक्त करवाया जा रहा है बल्कि अपने मुनाफे की हवस के लिए इन्हें विकास तो करना ही हैहम भी मानते हैं कि विकास ज़रूरी है लेकिन पूंजीवाद के विकास का रूप अब किसी भी प्रकार से रोल मॉडल नहीं रह गया है. मुनाफे की हवस से हर चीज जो प्राकृतिक है , उसे बलात नष्ट किया जाता है.वनों की अंधाधुंध कटाई, अधिक से अधिक कृषि उपज लेने के लिए कृषि योग्य भूमि पर बढ़ता हुआ कृत्रिम खाद, कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों का बोझ , बेशी मूल्य की जमाखोरी से बेशी उत्पादन और प्रदुषणपूंजीवादी के अराजक उत्पादन और वितरण ढांचे ने इस पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है. लेकिन पूंजीवाद की यह अराजकता सभ्यता की दौड़ में पिछडे आदिवासियों पर किसी बर्बर हमले से कम नहीं होती. फिर भी पूंजीवाद एक तीर से दो शिकार करता हैएक उनके प्राकृतिक संसाधनों की लूट और दूसरा उन्हें एक ऐसी सभ्यता में खींचता है जहाँ उनकी किस्मत में सबसे सस्ती श्रम-शक्ति की पूर्ति करना लिखा होता ताकि यह मांग से अधिक बनी रहे और मजदूरी की दर निम्न से निम्न रहे. पूंजीवाद के अपने तरीके और तर्क से आदिवासी आबादी को इस तरह सभ्यता में खींचने की परिणति इन आदिवासियों के लिए उज़रती गुलाम, बच्चों के भिखारी और औरतों के वेश्यावृति में रुपानान्तरण में होती है.

बुर्जुआ वर्ग ने, जहाँ पर भी उसका पलडा भारी हुआ, वहां सभी सामंती, पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक संबंधों का अंत कर दिया. उसने मनुष्य को अपनेस्वाभाविक बड़ोंके साथ बांध रखने वाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला; और नग्न स्वार्थ के, “नकद पैसे-कौडीके हृदयशुन्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच और कोई दूसरा सम्बन्ध बाकी नहीं रहने दिया. धार्मिक श्रद्धा के स्वगोपम आनंदातिरेक को, वीरोचित उत्साह और कूपमंडूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के बर्फीले पानी में डुबो दिया है. मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया है, और पहले के अनगिनत अनपहरणीय अधिकारपत्र द्वारा प्रदत्त स्वातंत्रों की जगह अब उसने एक ऐसे अंत:करणशून्य स्वातंत्र्य की स्थापना की है जिसे मुक्त व्यापार कहते हैं. संक्षेप में, धार्मिक और राजनीतिक भ्रमजाल के पीछे छिपे शोषण के स्थान पर उसने नग्न, निर्लज्ज, प्रत्यक्षऔर पाशविक शोषण की स्थापना की है…”

“…सभी स्थिर और ज़डीभूत सम्बन्ध, जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी श्रृंखला जुडी हूई होती है, मिटा दिये जाते हैं, और सभी नए बनने वाले सम्बन्ध ज़डीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं. जो कुछ भी ठोस होता है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नज़र से जीवन के वास्तविक हालत को, मानव-मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है.”

मार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखितकम्युनिस्ट घोषणापत्रसे लिया गया उपरोक्त उद्धरण चरितार्थ हो रहा है लेकिन विडम्बना देखीए कि यह सब उनके नेतृत्व में हो रहा है जो खुद को मार्क्सवादी कहलाते हैं.

शुक्रवार, 26 जून 2009

जब औजार क्रांति की माँग करते हैं

श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के आलेख उद्यम और श्रम की इन टिप्पणियों को देखें ;

अभिषेक ओझा said… “लाल झण्डा माने अकार्यकुशलता पर प्रीमियम’: लाख टके की बात ! “

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said… “जहाँ उद्यम उद्यमी और उद्योग का अर्थ श्रम का शोषण, शोषकपूँजीपति और पूँजी का विस्तारवाद, संस्कृत का श्लोक बुर्जुआओ की दलाल ब्राह्मणवादी मानसिकता समझा जाए तो व्याप्त औद्योगिक दुर्द्शा पर व्यक्त आपकी चिन्ता पर मरणासन्न मार्क्सवाद की ऎसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है।
तू इधर उधर की न बात कर, ये बता कि कारवाँ लुटा क्यूँ कि तर्ज पर यह जवाबदेही बनती है कि भारत में २लाख से ज्यादा औद्योगिक इकाइयाँ बंद क्यों हैं? एशिया का मैनचेस्टर के नाम से जाना जानें वाला और जो १९४७ के पहले २ लाख तथा १९७० में लगभग १० लाख कामगारों को रोजगार देता था, वह कानपुर आज तबाह क्यों है? टैफ्को, लालइमली, एल्गिन, म्योर, अथर्टन, कानपुर टेक्सटाइल, रेल वैगन फैक्ट्री, जे०के०रेयन, जे०के०काटन, जे०के०जूट, स्वदेशी काटन,मिश्रा होजरी, ब्रशवेयर कारपोरेशन, मोतीलाल पदमपत शुगर मिल्स, गैंजेस फ्लोर मिल्स, न्यूकानपुर फ्लोर मिल्स, गणेश फ्लोर एण्ड वेजिटेबिल आयल मिल, श्रीराम महादेव फ्लोर मिल, एच ए एल, इण्डियन फर्टिलाइजर तथा अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े कारखाने बन्द क्यों और किसकी वजह से हैं। सिर्फ और सिर्फ लाल झण्ड़े के कारण।”

काजल कुमार Kajal Kumar said… “आज लाल झंडे का मतलब केवल अधिकार रह गया है, न कि उत्तरदायित्व. “

dhiru singh {धीरू सिंह} said… “मजदूर यूनियन तो स्पीड ब्रेकर है तरक्की उन्हें खलती है और हड़ताल उनकी आमदनी का जरिए है”

Amit said… “यूनियन श्रमिकों को संगठित करने और कुटिल उद्योगपतियों के द्वारा श्रमिकों का शोषण रोकने के लिए बनाई गई थीं लेकिन वहाँ भी वैसी ही कुटिल राजनीति होने लगी जैसी लोकतंत्रों में होती है। श्रमिक अपना विवेक बेच के यूनियन लीडरों के पीछे भेड़ों की भांति चलने लगे और लीडर स्वयं बादशाह बन गए।”

Mired Mirage said… “The conclusion I have reached is that neither the union, nor the owners care a damn for you.They all have vested interests. Labour or whatever, you are just pawns in this great game of chess….”

उपरोक्त कुछ टिप्पणियों से जो निष्कर्ष निकलते हैं :

१. मजदूर यूनियनों की अर्थवादी रोटियां सकने कि राजनीति और
२. श्रमिकों, ट्रेड यूनियनों और उद्योगपतियों में से किसी एक पक्ष की जिद्द के कारण हड़ताल, तालाबंदी या किसी औद्योगिक इकाई द्वारा पूर्ण रूप से उत्पादन बंद.

पहला निष्कर्ष भी एक विस्तृत वाद-विवाद की मांग करता है लेकिन हम यहाँ केवल दूसरे निष्कर्ष जिसमें किसी औद्योगिक संयंत्र में काम बंद होने के पीछे “श्रमिकों, ट्रेड यूनियनों और उद्योगपतियों में से किसी एक पक्ष की जिद्द” को दोषी ठहराया जाता है तक सीमित रहेंगे.

अनुभववादी या मनोगत तरीके से सोचने पर स्थिति के वस्तुगत निष्कर्ष सतही और अवैज्ञानिक होते हैं क्योंकि किसी एक संयंत्र में तालाबंदी आदि के पीछे हम केवल स्थानीय कारणों तक सीमित रह जाते हैं जबकि आज की इस उत्पादन की प्रक्रिया को स्थानीय, एकांगी और आंशिक रूप से न समझकर इसे विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की विसंगतियों की समग्रता में देखना होगा. आज के नवउदारवादी युग में कोई भी ऐसा उत्पादन नहीं है जो साम्राज्यवादी पूंजी से निरपेक्ष हो.

थोडा सा सैद्धांतिक कारणों को समझने की कोशिश करते हैं,

पूंजी के दो भाग होते हैं. स्थिर (constant) पूंजी और परिवर्ती (variable) पूंजी. कच्चा माल, सहायक सामग्री और श्रम के औजार स्थिर पूंजी में शामिल होते हैं. उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान इनके मूल्य का कुछ भाग नए उत्पाद में रूपांतरित हो जाता है लेकिन इससे मूल्य में कोई वृद्धि नहीं होती.

दूसरी ओर, उत्पादन की प्रक्रिया में पूंजी के उस भाग के मूल्य में अवश्य परिवर्तन हो जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व श्रम शक्ति करता है. वह खुद अपने मूल्य के समतुल्य का पुनरुत्पादन भी करता है और साथ ही उससे अधिक बेशी मूल्य भी पैदा कर देता है. इसे परिवर्ती पूंजी कहते हैं.

प्रतिस्पर्द्धा के चलते पूंजीपति के लिए ज़रूरी होता है कि वह स्थिर पूंजी वाले भाग पर नई से नई तकनीक का प्रयोग करते हुए और परिवर्ती पूंजी पर मजदूरों की संख्या में कटौती करके श्रम सघनता बढाकर अधिक से अधिक उत्पादन करे. इससे अतिरिक्त मूल्य की दर बढ़ जाती या यूं कहें कि मजदूरों के शोषण की दर में बढोत्तरी होती है. इस मामले में बड़ा पूंजीपति छोटे के मुकाबले में अधिक लाभ में रहता है. इस होड़ में प्राय: छोटा पूंजीपति दम तोड़ देता है और उसकी औद्योगिक इकाई बंद हो जाती है. इसका एक परिणाम बेरोजगारी में वृद्धि होता है जो बड़े पूंजीपति द्वारा मजदूरों की संख्या में कटौती और बंद होने वाली औद्योगिक इकाई के कारण होती है.

इसके अलावा औद्योगिक इकाईयों के बंद होने के पीछे जो दूसरा सैद्धांतिक तर्क सक्रीय है, उसे भी समझने की कोशिश करते हैं;

‘आयरन हील’ में मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य की सरल व्याख्या करते हुए अर्नेस्ट निम्न निष्कर्ष निकालता है और प्रश्न करता है;

‘ मैं अपनी बात संक्षेप में दोहरा दूं. हमने एक विशेष औद्योगिक प्रक्रिया से बात शुरू की थी. एक जूता फैक्ट्री से हमने पाया कि जो हाल वहां है वही सारे औद्योगिक जगत में हैं. हमने पाया कि मजदूर को उत्पादन का एक हिस्सा मिलता है जिसे वह पूरी तरह खर्च कर देता है और पूंजीपति पूरा खर्च नहीं कर पाता. बचे हुए अतिरिक्त धन के लिए विदेशी बाज़ार अनिवार्य है. इस निवेश से वह देश भी अतिरिक्त पैदा करने में सक्षम हो जायेगा. जब एक दिन सभी इस स्थिति में पहुँच जायेंगे तो अंतत: इस अतिरिक्त का क्या होगा?

इसी अतिरिक्त ने वित्तीय साम्राज्यवादी पूंजी का रूप धारण करना शुरू किया लेकिन बीसवीं शताब्दी के शुरू में जब यह नावल प्रकाशित हुआ था उस वक्त वित्तीय पूंजी जो गैर उत्पादन कार्यों में लगती है , विश्व अर्थव्यवस्था की कुल पूंजी में उत्पादन की पूंजी के मुकाबले सतह पर तैरते एक बुलबुले समान थी. लेकिन आज स्थिति एकदम उल्ट है. आज वित्तीय पूंजी के मुकाबले उत्पादन कार्यों में लगी पूंजी एक बुलबुले समान है. जब इस अतिरिक्त के लिए उत्पादन कार्यों में लगने की कोई जगह नहीं है तो “किसी स्थानीय कुटीर उद्योग या मध्यम उद्योग की पूंजी” का मुकाबले में खड़े होना किस तरह से एक आसन कार्य हो सकता है ?

किसी स्थानीय कुटीर उद्योग या मध्यम उद्योग द्वारा जब उत्पादन शुरू होता है तो श्रम और पूंजी की टक्कर इस प्रक्रिया की एक आन्तरिक ज़रूरी शर्त होती है न कि बाहर से पैदा किया गया कोई छूत का रोग. खैर, उत्पादन शुरू हो जाता है, वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण मार्केट ने तय करना होता है जिसे अन्य औद्योगिक इकाईयों की वस्तुओं के मूल्य से टक्कर लेनी होती है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस “कुटीर उद्योग या मध्यम उद्योग” का खड़े रहना असंभव नहीं तो इतना आसान और जोखिम रहित नहीं होता. निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि किसी भी संयंत्र में उत्पादन कार्य के ठप होने के पीछे ” श्रमिकों, ट्रेड यूनियनों और उद्योगपतियों में से किसी एक पक्ष की जिद्द” की अपेक्षा स्वयं पूंजी की आन्तरिक विसंगति कहीं ज्यादा जिम्मेदार होती है.

बीसवीं शताब्दी के शुरू में इसी अतिरिक्त ने, जिसके लिए उत्पादन के कार्यों के लिए कोई जगह बाकी नहीं बची रह गयी थी - इसी अतिरिक्त ने वित्तीय पूंजी का रूप धारण करना शुरू किया जिसका चरित्र गैर-उत्पादन कार्यों में लगना होता है. वित्तीय पूंजी साम्राज्यवाद का एक ज़रूरी लक्ष्ण है. इसी अतिरिक्त मूल्य में लगातार बढोत्तरी का परिणाम था कि साम्राज्यवादी पूंजी विश्व का पुन: बटवारा करे जिसका परिणाम बीसवीं शताब्दी के दो विश्व-युद्ध थे. अपने अतिरिक्त को खपाने का एक बढ़िया तरीका होता है कि मानवता को युद्ध में झोंक दिया जाये. इससे न केवल बेरोजगारी कम होती है बल्कि विरोधी देशों को जीतकर, वहां अपनी डमी सरकार की स्थापना द्वारा अपने हितों कि पूर्ति जारी रखी जा सकती है.

आज भले ही समाजवाद हार चुका हो लेकिन पूंजी का चरित्र किसी भी प्रकार से विकासोंमुखी नहीं है. पूंजी स्वयं परजीवी होती है जो मजदूर द्वारा पैदा किये गए अतिरिक्त से अपना विस्तार करती है. लेकिन आज तो पूंजी का एक भाग जो वित्तीय है जो उत्पादन की किसी भी प्रक्रिया में नहीं है, जो अपने विस्तार के लिए उस पूंजी से हिस्सा छीनता है जो स्वयं मजदूर से निचोडे गए अतिरिक्त पर निर्भर होती है – पूंजी का यह चरित्र किसी तरह से भी मानव हितैषी नहीं है. बीसवीं शताब्दी की यह भी एक विडम्बना ही थी कि एक तरफ समाजवाद हार गया और दूसरी तरफ पूंजीवाद की समस्याओं में लगातार बढोत्तरी हो रही थी.

उत्पादन की शक्तियों का बेहद विस्तार हो चुका है लेकिन उत्पादन सम्बन्ध वही पुराने हैं. इस आलेख के शुरू में दी गयी टिप्पणियों में वर्णित फ़िक्र और सुझाव ठीक वैसे ही हैं जैसे पैर के बढ़ने पर जूता बदलने की बजाय पैर को काटना. उत्पादन की शक्तियां जब विकसित हो जाती हैं तो वे पुराने आर्थिक संबंधों को तोड़ डालती हैं. मानव जाति का अब तक का विकास इसी बात की पुष्टि करता है. उत्पादन की शक्तियों के विकास पर माओ के इस कथन –“औजार मनुष्यों द्वारा निर्मित किए जाते हैं | जब औजार क्रांति की माँग करते हैं , वे मनुष्यों के अंदर से बोलते हैं” का महत्त्व कम नहीं हुआ है. भले ही समाजवाद अपने पहले प्रयोग में हार चुका हो लेकिन मानव जाति ने अगर आगे बढ़ना है तो यही एक रास्ता है.

बुधवार, 24 जून 2009

मैं कार्ल मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की इतनी सरल प्रस्तुति सुन रही थी…

जैक लंडन का उपन्यास - देखें : \’आयरन हील\’

और अतिरिक्त मूल्य का नियम

सपने का गणित

अर्नेस्ट के उद्घाटन से लोग मानो भौंचक रह गए. इस बीच उसने फिर शुरू किया :
‘आप में से दर्जनों ने कहा कि समाजवाद असंभव है. आपने असम्भाविता पर जोर दिया है. मैं अनिवार्यता को चिन्हित कर रहा हूँ. न केवल यह अनिवार्य है कि आप छोटे पूंजीपति विलुप्त हो जायेंगे – बड़े पूंजीपति और ट्रस्ट भी नहीं बचेंगे. याद रखो विकास की धारा पीछे नहीं लोटती. वह आगे ही बढ़ती जाती है, प्रतियोगिता से संयोजन की ओर, छोटे संयोजन से बड़े संयोजन की ओर, फिर विराट संयोजन की ओर और फिर समाजवाद की ओर जो सबसे विराट संयोजन है.

‘आप कह रहे हैं कि मैं सपना देख रहा हूँ. ठीक है मैं अपने सपने का गणित प्रस्तुत कर रहा हूँ और यहीं मैं पहले से आपको चुनौती दे रहा हूँ कि आप मेरे गणित को गलत साबित करें. मैं पूंजीवादी व्यवस्था के ध्वंस की अनिवार्यता प्रमाणित करूंगा और मैं इसे गणितीय ढंग से प्रमाणित करूंगा. मैं शुरू कर रहा हूँ. थोडा धैर्य रखें, अगर शुरू में यह अप्रासंगिक लगे.

‘पहले हम किसी एक औद्योगिक प्रक्रिया की खोजबीन करें और जब भी आप मेरी किसी बात से असहमत हों, फ़ौरन हस्तक्षेप कर दें. एक जूते की फैक्टरी को लें. वहां लैदर जूता बनाया जाता है. मान लीजिए सौ डालर का चमडा खरीदा गया. फैक्टरी में उसके जूते बनें. दो सौ डालर के. हुआ क्या ? चमड़े के दाम सौ डालर में सौ डालर और जुड गया. कैसे ? आईए देखें.

पूंजी और श्रम ने जो सौ डालर जोड़े. पूंजी ने फैक्टरी, मशीने जुटाई, सारे खर्चे किए. श्रम ने श्रम जुटाया. दोनों के संयुक्त प्रयास से सौ डालर मूल्य जुडा. आप अब तक सहमत हैं? ‘

सब ने स्वीकार में गर्दन हिलाई.

‘पूंजी और श्रम इस सौ डालर का विभाजन करते हैं. इस विभाजन के आंकडे थोड़े महीन होंगे. तो आईए मोटा-मोटा हिसाब करें. पूंजी और श्रम पचास-पचास डालर बाँट लेते हैं. इस विभाजन में हुए विवाद में नहीं पड़ेंगे. यह भी याद रखें कि यह प्रक्रिया सभी उद्योगों में होती है. ठीक है न ? ‘

फिर सब ने स्वीकृति में गर्दन हिलाई.

‘अब मान लीजिए मजदूर जूते खरीदना चाहें तो पचास डालर के जूते खरीद सकते हैं. स्पष्ट है.’

‘अब हम किसी एक प्रक्रिया की जगह अमेरिका की सभी प्रक्रियाओं की कुल प्रक्रिया को लें जिसमें चमडा, कच्चा माल, परिवहन सब कुछ हो. मान लें अमेरिका में साल भर में चार अरब के धन का उत्पादन होता है. तो उस दौरान मजदूर ने दो अरब की मजदूरी पाई. चार अरब का उत्पादन जिसमें से मजदूरों को मिला — दो अरब — इसमें तो कोई बहस नहीं होनी चाहिए वैसे पूंजीपतियों की ढेरों चालों की वजह से मजदूरों को आधा भी कभी नहीं मिल पाता. पर चलिए मान लेते हैं कि आधा यानि दो अरब मिला मजदूरों को. तर्क तो यही कहेगा कि मजदूर दो अरब का उपयोग कर सकते हैं. लेकिन दो अरब का हिसाब बाकी है जो मजदूर नहीं पा सकता और इसलिए नहीं खर्च कर सकता.’

‘मजदूर. अपने दो अरब भी नहीं खर्च करता — क्योंकि तब वह बचत खाते में जमा क्या करेगा ? कोबाल्ट बोला.’

‘मजदूर का बचत खाता एक प्रकार का रिजर्व फंड होता है जो जितनी जल्दी बनता है उतनी जल्दी ख़त्म हो जाता है. यह बचत वृद्धा अवस्था, बीमारी, दुर्घटना और अंत्येष्टि के लिए की जाती है. बचत रोटी के उस टुकड़े की तरह होती है जिसे अगले दिन खाने के लिए बचा कर रखा जाता है. मजदूर वह सारा ही खर्च कर देता है जो मजदूरी में पाता है.’

‘दो अरब पूंजीपति के पास चले जाते हैं. खर्चों के बाद सारे का क्या वह, उपभोग कर लेता है ? क्या अपने सारे दो अरब का उपभोग करता है. अर्नेस्ट ने रूककर कई लोगों से दो टूक पूछा. सब ने सिर हिला दिया.

‘मैं नहीं जानता.’ एक ने साफ़-साफ़ कह दिया.

‘आप निश्चित ही जानते हैं. क्षण भर के लिए जरा सोचिए. अगर पूंजीपति सब का उपभोग कर ले तो पूंजी बढेगी कैसे ? अगर आप देश के इतिहास पर नज़र डालें तो आप देखेंगे कि पूंजी लगातार बढ़ती गयी है. इसलिए पूंजीपति सारे का उपभोग नहीं करता. आप को याद है जब इंग्लैंड के पास हमारी रेल के अधिकांश बांड थे. फिर हम उन्हें खरीदते गए. इसका क्या मतलब हुआ ? उन्हें उस पूंजी से ख़रीदा गया जिसका उपभोग नहीं हुआ था. इस बात का क्या मतलब है कि यूनाइटेड स्टेट्स के पास मैक्सिको, इटली और रूस के करोडों बांड हैं ? मतलब है कि वे लाखों करोडों वह पूंजी है जिसका पूंजीपतियों ने उपभोग नहीं किया. इसके अलावा पूंजीवाद के प्रारंभ से ही पूंजीपति ने कभी अपना सारा हिस्सा खर्च नहीं किया है.’

अब हम मुख्य मुद्दे पर आयें. अमेरिका में एक साल चार अरब के धन का उत्पादन होता है. मजदूर उसमें से दो अरब पाता है और खर्च कर देता है. पूंजीपति शेष दो अरब खर्च नहीं करता. भारी हिस्सा बचा रह जाता है. इस बचे अंश का क्या होता है ? इससे क्या हो सकता है ? मजदूर इसमें से कुछ खर्च नहीं कर सकता. क्योंकि उसने तो अपनी सारी मजदूरी खर्च कर दी है. पूंजीपति जितना खर्च कर सकता है, करता है; फिर भी बचा रह जाता है. तो इसका क्या हो ? क्या होता है?

‘एकदम ठीक! इसी शेष के लिए हमें विदेशी बाज़ार की ज़रुरत होती है. उसे विदेशों में बेचा जाता है. वही किया जा सकता है. उसे खर्चने का ओर उपाय नहीं है. और यही उपर्युक्त अतिरिक्त धन जो विदेशों में बेचा जाता है हमारी लिए सकारात्मक व्यापार संतुलन कहलाता है. क्या हम यहाँ तक सहमत हैं ?’

‘इस व्यवसाय के क, ख, ग से ही मैं आपको चकित करूंगा. यहीं. अमेरिका एक पूंजीवादी देश है जिसमें अपने संसाधनों का विकास किया है. अपनी पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था से उसके पास काफी धन बच जाता है जिसका वह उपभोग नहीं कर पाता. उसे विदेशों में खर्च करना ज़रूरी है. यही बात दूसरे पूंजीवादी देशों के बारे में भी सच है. अगर उनके संसाधन विकसित हैं तो यह न भूलें कि आपस में खूब व्यापार करते हैं फिर भी अतिरिक्त काफी बच जाता है. इन देशों में मजदूर सारी मजदूरी खर्च कर देता है और इस बचे हुए अतिरिक्त को खरीदने में असमर्थ है. इन देशों में पूंजीपति जितना भी उपयोग कर सकते हैं करते हैं फिर भी बहुत कुछ बच जाता है. इस अतिरिक्त धन को वे एक दूसरे को नहीं दे सकते. फिर उसका वे क्या करें?’

‘उन्हें अविकसित संसाधनों वाले देशों में बेच दें.’ कोबाल्ट बोला.

‘एकदम यह ठीक है. मेरा तर्क इतना स्पष्ट और सीधा है कि आप स्वयं मेरा काम आसान कर रहे हैं. अब अगला कदम ! मान लिया यूनाइटेड स्टेट्स अपने अतिरिक्त धन को एक अविकसित देश जैसे ब्राजील में लगाता है. याद रखें यह अतिरिक्त उस व्यापार से अलग है जिसका इस्तेमाल हो चूका है. तो उसके बदले में ब्राजील से क्या मिलता है?’

‘सोना’ कोबाल्ट बोला.

‘लेकिन दुनिया में सोना तो सीमित है !’ अर्नेस्ट ने एतराज किया.

‘आप पहुँच गए. ब्राजील से अमेरिका अपने अतिरिक्त धन के बदले में लेता है सिक्युरिटी और बांड. इसका मतलब है अमेरिका ब्राजील रेल, फैक्ट्रियों, खदानों का मालिक बन सकता है. और तब इसका क्या मतलब हुआ ?’

कोबाल्ट सोचने लगा पर नहीं सोच पाया तथा नकारात्मक में सिर हिला दिया.

‘मैं बताता हूँ. इसका मतलब हुआ ब्राजील के संसाधन विकसित किए जा रहे हैं. जब ब्राजील पूंजीवादी व्यवस्था में अपने संसाधन विकसित कर लेगा तो उसके पास भी अतिरिक्त धन बचने लगेगा. क्या वह इसे अमेरिका में लगा सकता है ? नहीं क्योंकि उसके पास तो अपना ही अतिरिक्त धन है. तो क्या अमेरिका अपना अतिरिक्त धन पहले की ही तरह ब्राजील में लगा सकता है ? नहीं ; क्योंकि अब तो स्वयं ब्राजील के पास अतिरिक्त धन है.

‘ तब क्या होता है ? इन दोनों को तीसरा अविकसित देश ढूँढना पड़ेगा जहाँ से वे अपना सरप्लस उलीच सकें. इस क्रम से उनके पास भी अतिरिक्त धन बचने लगेगा. महानुभाव गौर करें धरती इतनी बड़ी तो है नहीं. देशों की संख्या सीमित है. तब क्या होगा जब छोटे से छोटे देश में भी कुछ अतिरिक्त बचने लगेगा?’

उसने रूककर श्रोताओं पर एक नज़र डाली. उनके चेहरों पर हवाईयां उड़ रही थीं. थोडा उसे मज़ा आया. जितने बिम्ब खींचे थे अर्नेस्ट ने उनमें से कई उन्हें डरा रहे थे.

मिस्टर काल्विन हमने ए बी सी से शुरू किया था. मैंने अब सारे अक्षर सामने रख दिए हैं. यही तो इसका सौन्दर्य है. क्या होगा जब देश के पास अतिरिक्त बचा रह जायेगा ओर आपकी पूंजीवादी व्यवस्था का क्या होगा ?’

अर्नेस्ट ने फिर शुरू किया :

‘ मैं अपनी बात संक्षेप में दोहरा दूं. हमने एक विशेष औद्योगिक प्रक्रिया से बात शुरू की थी. एक जूता फैक्ट्री से हमने पाया कि जो हाल वहां है वही सारे औद्योगिक जगत में हैं. हमने पाया कि मजदूर को उत्पादन का एक हिस्सा मिलता है जिसे वह पूरी तरह खर्च कर देता है और पूंजीपति पूरा खर्च नहीं कर पाता. बचे हुए अतिरिक्त धन के लिए विदेशी बाज़ार अनिवार्य है. इस निवेश से वह देश भी अतिरिक्त पैदा करने में सक्षम हो जायेगा. जब एक दिन सभी इस स्थिति में पहुँच जायेंगे तो अंतत: इस अतिरिक्त का क्या होगा?

किसी ने जवाब नहीं दिया.

‘काल्विन महोदय !’

‘मुझे समझ नहीं आ रहा.’ उसने स्वीकारा.

‘मैंने तो यह सपने में भी नहीं सोचा था पर यह तो एकदम स्पष्ट लग रहा है.’ ऐसमुनसेन ने कहा.

मैं कार्ल मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की इतनी सरल प्रस्तुति सुन रही थी और मैं स्तब्ध और चकित बैठी थी…

इतिहास बोध प्रकाशन
बी-239, चन्द्रशेखर आजाद नगर
इलाहाबाद – 211004
दूरभाष : 0532/2546769 से प्रकाशित ‘आयरन हील’ – जैक लंडन
से साभार

श्रम और पूंजी की टक्कर – एक ऐसा ‘वैषम्य’ जिसका निपटारा बल प्रयोग द्वारा ही होता है

श्री दिनेशराय द्विवेदी जी द्वारा लिखित आलेख ‘उद्यम भी श्रम ही है‘ और श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय द्वारा लिखित आलेख ‘उद्यम और श्रम’ की टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में यह ज़रूरी हो गया कि पाठको को पूंजी और श्रम के उस बुनियादी ‘वैषम्य’ जो इन दोनों के बीच है – इस ‘वैषम्य’ का निपटारा किसी तीसरे हम जैसे पाठक या जज की दखलान्दाजी से सर्वदा मुक्त है, इस बिंदु को समझना होगा और अपने मनोगत विचारों से मुक्ति पानी होगी.

श्रम-शक्ति अन्य वस्तुओं की तरह एक जिंस (commodity) होती है लेकिन अन्य जिंसो से इसलिए अलग है कि इसे मनुष्य के शरीर से अलग नहीं किया जा सकता और दूसरी जिंसों के विपरीत यह अकेली ऐसी जिन्स है जो बेशी मूल्य या अतिरिक्त मूल्य या अधिशेष (surplus value) पैदा करती है.

लेकिन दूसरी जिंसों की तरह ही इसका भी बाज़ार में विनिमय होता है. दूसरी जिंसों की तरह इसका मूल्य भी इसके पुनरुत्थान पर खर्च – श्रम शक्ति के बराबर होता है. लेकिन एक बार पूंजीपति द्वारा इसे खरीदने पर उसे यह अधिकार मिल जाता है कि वह इसका ‘काम का दिन’ में मूल्य पैदा करने के लिए उपयोग कर सके .

‘काम का दिन’ के दौरान मजदूर द्वारा किया गया वह श्रम जो उसके जिन्दा रहने और उसकी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी होता है, ज़रूरी श्रम कहलाता है जबकि इसके अतिरिक्त समय के लिए किया गया श्रम – यही, केवल यही वह श्रम होता है जो अतिरिक्त मूल्य, या बेशी मूल्य, या अधिशेष (surplus value) जिसे लूटने वाला पूंजीपति वर्ग अपनी बहियों में “शुभ लाभ” के नाम से दर्ज करता है, अतिरिक्तश्रम कहलाता है.

लेकिन प्रश्न उठता है कि ‘काम का दिन’ की लम्बाई की क्या परिभाषा या ‘परिमाण’ हो ? पूंजीपति इसे ज्यादा से ज्यादा लम्बा करना चाहेगा जबकि श्रमिक इसे छोटा !

मार्क्स की ‘पूंजी’ के प्रथम खंड के ‘काम के दिन’ नामक अध्याय से यह उद्धरण जिसमें एक मजदूर पूंजीपति को संबोधित है, काबिले-गौर है ;

मैंने जो पण्य (जिंस) तुम्हारे हाथ बेचा है, वह दूसरे पण्यों की भीड़ से इस बात में भिन्न है कि उसका उपयोग मूल्य का सृजन करता है, और वह मूल्य उसके अपने मूल्य से अधिक होता है. इसलिए तो तुमने उसे खरीदा है. तुम्हारी दृष्टि में जो पूँजी का स्वयंस्फूर्त विस्तार है, वह मेरी दृष्टि में श्रम शक्ति का अतिरिक्त उपभोग है. मंडी में तुम और मैं केवल एक ही नियम मानते है, और वह है पण्यों का विनिमय का नियम. और पण्यों के उपभोग पर बेचने वाले का, जो पण्य को हस्तांतरित कर चुका है, अधिकार नहीं होता; पण्य के उपभोग पर उसे खरीदने वाले का अधिकार होता है, जिसने पण्य को हासिल कर लिया है. इसलिए मेरी दैनिक श्रमशक्ति के उपभोग पर तुम्हारा अधिकार है. लेकिन उसका जो दाम तुम हर रोज देते हो, वह इसके लिए काफी होना चाहिए कि मैं अपनी श्रमशक्ति का रोजाना पुनरुत्पादन कर सकूँ और उसे फिर से बेच सकूँ. बढती हुई आयु, इत्यादी के कारण शक्ति का जो स्वाभाविक ह्रास होता है, उसको छोड़कर मेरे लिए यह संभव होना चाहिए कि मैं हर नयी सुबह को पहले जैसे सामान्य बल, स्वास्थ्य तथा ताज़गी के साथ काम कर सकूँ. तुम मुझे हर घडी “मितव्ययिता” और “परिवर्जन” का उपदेश सुनाते रहते हो. अच्छी बात है ! अब मैं भी विवेक और “मितव्ययिता” से काम लूँगा और अपनी एकमात्र संपत्ति – यानि अपनी श्रम-शक्ति – के किसी भी प्रकार के मूर्खतापूर्ण अपव्यय का परिवर्जन करूंगा. मैं हर रोज अब केवल उतनी ही श्रमशक्ति का उपयोग करूंगा, केवल उतनी ही श्रमशक्ति से काम करूंगा, केवल उतनी ही श्रमशक्ति को क्रियाशील बनाउंगा, जितनी उसकी सामान्य अवधि तथा स्वस्थ विकास के अनुरूप होगी. काम के दिन का मनमाना विस्तार करके, मुमकिन है, तुम एक ही दिन में इतनी श्रमशक्ति इस्तेमाल कर डालो, जिसे मैं तीन दिन में भी पुन: प्राप्त न कर सकूँ. श्रम के रूप में तुम्हारा जितना लाभ होगा, श्रम के सारतत्त्व के रूप में उतना ही मेरा नुकसान हो जायेगा. मेरी श्रमशक्ति का उपयोग करना एक बात है, और उसे लूटकर चौपट कर देना बिलकुल दूसरी बात है. यदि एक औसत मजदूर (उचित मात्रा में काम करते हुए) औसतन तीस वर्ष तक जिंदा रह सकता है, तो मेरी श्रमशक्ति का वह मूल्य, जो तुम मुझे रोज देते हो, उसके कुल मूल्य का 1/365*30 या 1/10,950 वां भाग होता है. किन्तु यदि तुम मेरी श्रमशक्ति को तीस के बजाए दस वर्षों में ही खर्च कर डालते हो तो तुम रोजाना मुझको मेरी श्रमशक्ति के कुल मूल्य के 1/3,650 के बजाए उसका 1/10,950 , यानि उसके दैनिक मूल्य का केवल 1/3 ही देते हो. इस तरह तुम मेरे पण्य के मूल्य का 2/3 भाग प्रतिदिन लूट लेते हो. तुम मुझे दाम दोगे एक दिन की श्रमशक्ति के, लेकिन इस्तेमाल करोगे तीन दिन की श्रमशक्ति. यह हम लोगों के करार और विनिमय के नियम के खिलाफ है. इसलिए मैं मांग करता हूँ कि काम का दिन सामान्य लम्बाई का हो, (मजूदूर के लिए सामान्य लम्बाई का अर्थ उतना ही है जितना उसकी श्रम शक्ति के पुनरुत्थान के लिए ज़रूरी है -अधिशेष के लिए एक पल भी अतिरिक्त नहीं ) और इस मांग को मनमाने के लिए मैं तुम्हारे हृदय को द्रवित नहीं करना चाहता, क्योंकि रूपए-पैसे के मामले में भावनाओं का कोई स्थान नहीं होता. मुमकिन है कि तुम एक आदर्श नागरिक हो, संभव है कि तुम पशु-निर्दयता- निवारण समिति के सदस्य भी हो और ऊपर से तुम्हारा साधुपन सारी दुनिया में विख्यात हो. लेकिन मेरे सामने खड़े हुए तुम जिस चीज का प्रतिनिधित्व करते है, उसकी छाती में हृदय का प्रभाव है. वहां जो कुछ धड़कता सा लगता है, वह मेरे ही दिल की आवाज है. मैं सामान्य दीर्घता के काम के दिन की इसलिए मांग करता हूँ कि दूसरे हर विक्रेता की तरह मैं भी अपने पण्य का पूरा-पूरा मूल्य चाहता हूँ.

इस तरह हम देखते हैं कि कुछ बहुत ही लोचदार सीमाओं के अलावा पण्यों के विनिमय का स्वरूप खुद काम के दिन पर, या बेशी श्रम पर, कोई प्रतिबन्ध नहीं लगता. पूंजीपति जब काम के दिन को ज्यादा से ज्यादा खींचना चाहता है, और मुमकिन है, तो एक दिन के दो दिन बनाने की कोशिश करता है, तब वह खरीददार के रूप में अपने अधिकार का उपयोग करता है. दूसरी तरफ, उसके हाथ बेचा जाने वाला पण्य इस अजीब तरह का है कि उसका खरीददार एक सीमा से अधिक उपयोग नहीं कर सकता, और जब मजदूर काम के दिन को घटाकर एक निश्चित एवं सामान्य अवधि का दिन कर देना चाहता है, तब वह भी बेचने वाले के रूप में अपने अधिकार का ही प्रयोग करता है. इसलिए यहाँ असल में अधिकारों का विरोध सामने आता है, एक अधिकार दूसरे अधिकार से टकराता है, और दोनों अधिकार ऐसे हैं, जिन पर विनिमय की मुहर लगी हुई है. जब सामान अधिकारों की टक्कर होती है, तब बल प्रयोग द्वारा ही निर्णय होता है. यही कारण है कि पूंजीवादी उत्पादन के इतिहास में काम का दिन कितना लम्बा हो, इस प्रश्न का निर्णय एक संघर्ष के द्वारा होता है, जो संघर्ष सामूहिक पूँजी अर्थात पूंजीपतियों के वर्ग और सामूहिक श्रम अर्थात मजदूर वर्ग के बीच चलता है.


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