शुक्रवार, 26 जून 2009

जब औजार क्रांति की माँग करते हैं

श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के आलेख उद्यम और श्रम की इन टिप्पणियों को देखें ;

अभिषेक ओझा said… “लाल झण्डा माने अकार्यकुशलता पर प्रीमियम’: लाख टके की बात ! “

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said… “जहाँ उद्यम उद्यमी और उद्योग का अर्थ श्रम का शोषण, शोषकपूँजीपति और पूँजी का विस्तारवाद, संस्कृत का श्लोक बुर्जुआओ की दलाल ब्राह्मणवादी मानसिकता समझा जाए तो व्याप्त औद्योगिक दुर्द्शा पर व्यक्त आपकी चिन्ता पर मरणासन्न मार्क्सवाद की ऎसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही है।
तू इधर उधर की न बात कर, ये बता कि कारवाँ लुटा क्यूँ कि तर्ज पर यह जवाबदेही बनती है कि भारत में २लाख से ज्यादा औद्योगिक इकाइयाँ बंद क्यों हैं? एशिया का मैनचेस्टर के नाम से जाना जानें वाला और जो १९४७ के पहले २ लाख तथा १९७० में लगभग १० लाख कामगारों को रोजगार देता था, वह कानपुर आज तबाह क्यों है? टैफ्को, लालइमली, एल्गिन, म्योर, अथर्टन, कानपुर टेक्सटाइल, रेल वैगन फैक्ट्री, जे०के०रेयन, जे०के०काटन, जे०के०जूट, स्वदेशी काटन,मिश्रा होजरी, ब्रशवेयर कारपोरेशन, मोतीलाल पदमपत शुगर मिल्स, गैंजेस फ्लोर मिल्स, न्यूकानपुर फ्लोर मिल्स, गणेश फ्लोर एण्ड वेजिटेबिल आयल मिल, श्रीराम महादेव फ्लोर मिल, एच ए एल, इण्डियन फर्टिलाइजर तथा अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े कारखाने बन्द क्यों और किसकी वजह से हैं। सिर्फ और सिर्फ लाल झण्ड़े के कारण।”

काजल कुमार Kajal Kumar said… “आज लाल झंडे का मतलब केवल अधिकार रह गया है, न कि उत्तरदायित्व. “

dhiru singh {धीरू सिंह} said… “मजदूर यूनियन तो स्पीड ब्रेकर है तरक्की उन्हें खलती है और हड़ताल उनकी आमदनी का जरिए है”

Amit said… “यूनियन श्रमिकों को संगठित करने और कुटिल उद्योगपतियों के द्वारा श्रमिकों का शोषण रोकने के लिए बनाई गई थीं लेकिन वहाँ भी वैसी ही कुटिल राजनीति होने लगी जैसी लोकतंत्रों में होती है। श्रमिक अपना विवेक बेच के यूनियन लीडरों के पीछे भेड़ों की भांति चलने लगे और लीडर स्वयं बादशाह बन गए।”

Mired Mirage said… “The conclusion I have reached is that neither the union, nor the owners care a damn for you.They all have vested interests. Labour or whatever, you are just pawns in this great game of chess….”

उपरोक्त कुछ टिप्पणियों से जो निष्कर्ष निकलते हैं :

१. मजदूर यूनियनों की अर्थवादी रोटियां सकने कि राजनीति और
२. श्रमिकों, ट्रेड यूनियनों और उद्योगपतियों में से किसी एक पक्ष की जिद्द के कारण हड़ताल, तालाबंदी या किसी औद्योगिक इकाई द्वारा पूर्ण रूप से उत्पादन बंद.

पहला निष्कर्ष भी एक विस्तृत वाद-विवाद की मांग करता है लेकिन हम यहाँ केवल दूसरे निष्कर्ष जिसमें किसी औद्योगिक संयंत्र में काम बंद होने के पीछे “श्रमिकों, ट्रेड यूनियनों और उद्योगपतियों में से किसी एक पक्ष की जिद्द” को दोषी ठहराया जाता है तक सीमित रहेंगे.

अनुभववादी या मनोगत तरीके से सोचने पर स्थिति के वस्तुगत निष्कर्ष सतही और अवैज्ञानिक होते हैं क्योंकि किसी एक संयंत्र में तालाबंदी आदि के पीछे हम केवल स्थानीय कारणों तक सीमित रह जाते हैं जबकि आज की इस उत्पादन की प्रक्रिया को स्थानीय, एकांगी और आंशिक रूप से न समझकर इसे विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की विसंगतियों की समग्रता में देखना होगा. आज के नवउदारवादी युग में कोई भी ऐसा उत्पादन नहीं है जो साम्राज्यवादी पूंजी से निरपेक्ष हो.

थोडा सा सैद्धांतिक कारणों को समझने की कोशिश करते हैं,

पूंजी के दो भाग होते हैं. स्थिर (constant) पूंजी और परिवर्ती (variable) पूंजी. कच्चा माल, सहायक सामग्री और श्रम के औजार स्थिर पूंजी में शामिल होते हैं. उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान इनके मूल्य का कुछ भाग नए उत्पाद में रूपांतरित हो जाता है लेकिन इससे मूल्य में कोई वृद्धि नहीं होती.

दूसरी ओर, उत्पादन की प्रक्रिया में पूंजी के उस भाग के मूल्य में अवश्य परिवर्तन हो जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व श्रम शक्ति करता है. वह खुद अपने मूल्य के समतुल्य का पुनरुत्पादन भी करता है और साथ ही उससे अधिक बेशी मूल्य भी पैदा कर देता है. इसे परिवर्ती पूंजी कहते हैं.

प्रतिस्पर्द्धा के चलते पूंजीपति के लिए ज़रूरी होता है कि वह स्थिर पूंजी वाले भाग पर नई से नई तकनीक का प्रयोग करते हुए और परिवर्ती पूंजी पर मजदूरों की संख्या में कटौती करके श्रम सघनता बढाकर अधिक से अधिक उत्पादन करे. इससे अतिरिक्त मूल्य की दर बढ़ जाती या यूं कहें कि मजदूरों के शोषण की दर में बढोत्तरी होती है. इस मामले में बड़ा पूंजीपति छोटे के मुकाबले में अधिक लाभ में रहता है. इस होड़ में प्राय: छोटा पूंजीपति दम तोड़ देता है और उसकी औद्योगिक इकाई बंद हो जाती है. इसका एक परिणाम बेरोजगारी में वृद्धि होता है जो बड़े पूंजीपति द्वारा मजदूरों की संख्या में कटौती और बंद होने वाली औद्योगिक इकाई के कारण होती है.

इसके अलावा औद्योगिक इकाईयों के बंद होने के पीछे जो दूसरा सैद्धांतिक तर्क सक्रीय है, उसे भी समझने की कोशिश करते हैं;

‘आयरन हील’ में मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य की सरल व्याख्या करते हुए अर्नेस्ट निम्न निष्कर्ष निकालता है और प्रश्न करता है;

‘ मैं अपनी बात संक्षेप में दोहरा दूं. हमने एक विशेष औद्योगिक प्रक्रिया से बात शुरू की थी. एक जूता फैक्ट्री से हमने पाया कि जो हाल वहां है वही सारे औद्योगिक जगत में हैं. हमने पाया कि मजदूर को उत्पादन का एक हिस्सा मिलता है जिसे वह पूरी तरह खर्च कर देता है और पूंजीपति पूरा खर्च नहीं कर पाता. बचे हुए अतिरिक्त धन के लिए विदेशी बाज़ार अनिवार्य है. इस निवेश से वह देश भी अतिरिक्त पैदा करने में सक्षम हो जायेगा. जब एक दिन सभी इस स्थिति में पहुँच जायेंगे तो अंतत: इस अतिरिक्त का क्या होगा?

इसी अतिरिक्त ने वित्तीय साम्राज्यवादी पूंजी का रूप धारण करना शुरू किया लेकिन बीसवीं शताब्दी के शुरू में जब यह नावल प्रकाशित हुआ था उस वक्त वित्तीय पूंजी जो गैर उत्पादन कार्यों में लगती है , विश्व अर्थव्यवस्था की कुल पूंजी में उत्पादन की पूंजी के मुकाबले सतह पर तैरते एक बुलबुले समान थी. लेकिन आज स्थिति एकदम उल्ट है. आज वित्तीय पूंजी के मुकाबले उत्पादन कार्यों में लगी पूंजी एक बुलबुले समान है. जब इस अतिरिक्त के लिए उत्पादन कार्यों में लगने की कोई जगह नहीं है तो “किसी स्थानीय कुटीर उद्योग या मध्यम उद्योग की पूंजी” का मुकाबले में खड़े होना किस तरह से एक आसन कार्य हो सकता है ?

किसी स्थानीय कुटीर उद्योग या मध्यम उद्योग द्वारा जब उत्पादन शुरू होता है तो श्रम और पूंजी की टक्कर इस प्रक्रिया की एक आन्तरिक ज़रूरी शर्त होती है न कि बाहर से पैदा किया गया कोई छूत का रोग. खैर, उत्पादन शुरू हो जाता है, वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण मार्केट ने तय करना होता है जिसे अन्य औद्योगिक इकाईयों की वस्तुओं के मूल्य से टक्कर लेनी होती है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस “कुटीर उद्योग या मध्यम उद्योग” का खड़े रहना असंभव नहीं तो इतना आसान और जोखिम रहित नहीं होता. निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि किसी भी संयंत्र में उत्पादन कार्य के ठप होने के पीछे ” श्रमिकों, ट्रेड यूनियनों और उद्योगपतियों में से किसी एक पक्ष की जिद्द” की अपेक्षा स्वयं पूंजी की आन्तरिक विसंगति कहीं ज्यादा जिम्मेदार होती है.

बीसवीं शताब्दी के शुरू में इसी अतिरिक्त ने, जिसके लिए उत्पादन के कार्यों के लिए कोई जगह बाकी नहीं बची रह गयी थी - इसी अतिरिक्त ने वित्तीय पूंजी का रूप धारण करना शुरू किया जिसका चरित्र गैर-उत्पादन कार्यों में लगना होता है. वित्तीय पूंजी साम्राज्यवाद का एक ज़रूरी लक्ष्ण है. इसी अतिरिक्त मूल्य में लगातार बढोत्तरी का परिणाम था कि साम्राज्यवादी पूंजी विश्व का पुन: बटवारा करे जिसका परिणाम बीसवीं शताब्दी के दो विश्व-युद्ध थे. अपने अतिरिक्त को खपाने का एक बढ़िया तरीका होता है कि मानवता को युद्ध में झोंक दिया जाये. इससे न केवल बेरोजगारी कम होती है बल्कि विरोधी देशों को जीतकर, वहां अपनी डमी सरकार की स्थापना द्वारा अपने हितों कि पूर्ति जारी रखी जा सकती है.

आज भले ही समाजवाद हार चुका हो लेकिन पूंजी का चरित्र किसी भी प्रकार से विकासोंमुखी नहीं है. पूंजी स्वयं परजीवी होती है जो मजदूर द्वारा पैदा किये गए अतिरिक्त से अपना विस्तार करती है. लेकिन आज तो पूंजी का एक भाग जो वित्तीय है जो उत्पादन की किसी भी प्रक्रिया में नहीं है, जो अपने विस्तार के लिए उस पूंजी से हिस्सा छीनता है जो स्वयं मजदूर से निचोडे गए अतिरिक्त पर निर्भर होती है – पूंजी का यह चरित्र किसी तरह से भी मानव हितैषी नहीं है. बीसवीं शताब्दी की यह भी एक विडम्बना ही थी कि एक तरफ समाजवाद हार गया और दूसरी तरफ पूंजीवाद की समस्याओं में लगातार बढोत्तरी हो रही थी.

उत्पादन की शक्तियों का बेहद विस्तार हो चुका है लेकिन उत्पादन सम्बन्ध वही पुराने हैं. इस आलेख के शुरू में दी गयी टिप्पणियों में वर्णित फ़िक्र और सुझाव ठीक वैसे ही हैं जैसे पैर के बढ़ने पर जूता बदलने की बजाय पैर को काटना. उत्पादन की शक्तियां जब विकसित हो जाती हैं तो वे पुराने आर्थिक संबंधों को तोड़ डालती हैं. मानव जाति का अब तक का विकास इसी बात की पुष्टि करता है. उत्पादन की शक्तियों के विकास पर माओ के इस कथन –“औजार मनुष्यों द्वारा निर्मित किए जाते हैं | जब औजार क्रांति की माँग करते हैं , वे मनुष्यों के अंदर से बोलते हैं” का महत्त्व कम नहीं हुआ है. भले ही समाजवाद अपने पहले प्रयोग में हार चुका हो लेकिन मानव जाति ने अगर आगे बढ़ना है तो यही एक रास्ता है.

बुधवार, 24 जून 2009

मैं कार्ल मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की इतनी सरल प्रस्तुति सुन रही थी…

जैक लंडन का उपन्यास - देखें : \’आयरन हील\’

और अतिरिक्त मूल्य का नियम

सपने का गणित

अर्नेस्ट के उद्घाटन से लोग मानो भौंचक रह गए. इस बीच उसने फिर शुरू किया :
‘आप में से दर्जनों ने कहा कि समाजवाद असंभव है. आपने असम्भाविता पर जोर दिया है. मैं अनिवार्यता को चिन्हित कर रहा हूँ. न केवल यह अनिवार्य है कि आप छोटे पूंजीपति विलुप्त हो जायेंगे – बड़े पूंजीपति और ट्रस्ट भी नहीं बचेंगे. याद रखो विकास की धारा पीछे नहीं लोटती. वह आगे ही बढ़ती जाती है, प्रतियोगिता से संयोजन की ओर, छोटे संयोजन से बड़े संयोजन की ओर, फिर विराट संयोजन की ओर और फिर समाजवाद की ओर जो सबसे विराट संयोजन है.

‘आप कह रहे हैं कि मैं सपना देख रहा हूँ. ठीक है मैं अपने सपने का गणित प्रस्तुत कर रहा हूँ और यहीं मैं पहले से आपको चुनौती दे रहा हूँ कि आप मेरे गणित को गलत साबित करें. मैं पूंजीवादी व्यवस्था के ध्वंस की अनिवार्यता प्रमाणित करूंगा और मैं इसे गणितीय ढंग से प्रमाणित करूंगा. मैं शुरू कर रहा हूँ. थोडा धैर्य रखें, अगर शुरू में यह अप्रासंगिक लगे.

‘पहले हम किसी एक औद्योगिक प्रक्रिया की खोजबीन करें और जब भी आप मेरी किसी बात से असहमत हों, फ़ौरन हस्तक्षेप कर दें. एक जूते की फैक्टरी को लें. वहां लैदर जूता बनाया जाता है. मान लीजिए सौ डालर का चमडा खरीदा गया. फैक्टरी में उसके जूते बनें. दो सौ डालर के. हुआ क्या ? चमड़े के दाम सौ डालर में सौ डालर और जुड गया. कैसे ? आईए देखें.

पूंजी और श्रम ने जो सौ डालर जोड़े. पूंजी ने फैक्टरी, मशीने जुटाई, सारे खर्चे किए. श्रम ने श्रम जुटाया. दोनों के संयुक्त प्रयास से सौ डालर मूल्य जुडा. आप अब तक सहमत हैं? ‘

सब ने स्वीकार में गर्दन हिलाई.

‘पूंजी और श्रम इस सौ डालर का विभाजन करते हैं. इस विभाजन के आंकडे थोड़े महीन होंगे. तो आईए मोटा-मोटा हिसाब करें. पूंजी और श्रम पचास-पचास डालर बाँट लेते हैं. इस विभाजन में हुए विवाद में नहीं पड़ेंगे. यह भी याद रखें कि यह प्रक्रिया सभी उद्योगों में होती है. ठीक है न ? ‘

फिर सब ने स्वीकृति में गर्दन हिलाई.

‘अब मान लीजिए मजदूर जूते खरीदना चाहें तो पचास डालर के जूते खरीद सकते हैं. स्पष्ट है.’

‘अब हम किसी एक प्रक्रिया की जगह अमेरिका की सभी प्रक्रियाओं की कुल प्रक्रिया को लें जिसमें चमडा, कच्चा माल, परिवहन सब कुछ हो. मान लें अमेरिका में साल भर में चार अरब के धन का उत्पादन होता है. तो उस दौरान मजदूर ने दो अरब की मजदूरी पाई. चार अरब का उत्पादन जिसमें से मजदूरों को मिला — दो अरब — इसमें तो कोई बहस नहीं होनी चाहिए वैसे पूंजीपतियों की ढेरों चालों की वजह से मजदूरों को आधा भी कभी नहीं मिल पाता. पर चलिए मान लेते हैं कि आधा यानि दो अरब मिला मजदूरों को. तर्क तो यही कहेगा कि मजदूर दो अरब का उपयोग कर सकते हैं. लेकिन दो अरब का हिसाब बाकी है जो मजदूर नहीं पा सकता और इसलिए नहीं खर्च कर सकता.’

‘मजदूर. अपने दो अरब भी नहीं खर्च करता — क्योंकि तब वह बचत खाते में जमा क्या करेगा ? कोबाल्ट बोला.’

‘मजदूर का बचत खाता एक प्रकार का रिजर्व फंड होता है जो जितनी जल्दी बनता है उतनी जल्दी ख़त्म हो जाता है. यह बचत वृद्धा अवस्था, बीमारी, दुर्घटना और अंत्येष्टि के लिए की जाती है. बचत रोटी के उस टुकड़े की तरह होती है जिसे अगले दिन खाने के लिए बचा कर रखा जाता है. मजदूर वह सारा ही खर्च कर देता है जो मजदूरी में पाता है.’

‘दो अरब पूंजीपति के पास चले जाते हैं. खर्चों के बाद सारे का क्या वह, उपभोग कर लेता है ? क्या अपने सारे दो अरब का उपभोग करता है. अर्नेस्ट ने रूककर कई लोगों से दो टूक पूछा. सब ने सिर हिला दिया.

‘मैं नहीं जानता.’ एक ने साफ़-साफ़ कह दिया.

‘आप निश्चित ही जानते हैं. क्षण भर के लिए जरा सोचिए. अगर पूंजीपति सब का उपभोग कर ले तो पूंजी बढेगी कैसे ? अगर आप देश के इतिहास पर नज़र डालें तो आप देखेंगे कि पूंजी लगातार बढ़ती गयी है. इसलिए पूंजीपति सारे का उपभोग नहीं करता. आप को याद है जब इंग्लैंड के पास हमारी रेल के अधिकांश बांड थे. फिर हम उन्हें खरीदते गए. इसका क्या मतलब हुआ ? उन्हें उस पूंजी से ख़रीदा गया जिसका उपभोग नहीं हुआ था. इस बात का क्या मतलब है कि यूनाइटेड स्टेट्स के पास मैक्सिको, इटली और रूस के करोडों बांड हैं ? मतलब है कि वे लाखों करोडों वह पूंजी है जिसका पूंजीपतियों ने उपभोग नहीं किया. इसके अलावा पूंजीवाद के प्रारंभ से ही पूंजीपति ने कभी अपना सारा हिस्सा खर्च नहीं किया है.’

अब हम मुख्य मुद्दे पर आयें. अमेरिका में एक साल चार अरब के धन का उत्पादन होता है. मजदूर उसमें से दो अरब पाता है और खर्च कर देता है. पूंजीपति शेष दो अरब खर्च नहीं करता. भारी हिस्सा बचा रह जाता है. इस बचे अंश का क्या होता है ? इससे क्या हो सकता है ? मजदूर इसमें से कुछ खर्च नहीं कर सकता. क्योंकि उसने तो अपनी सारी मजदूरी खर्च कर दी है. पूंजीपति जितना खर्च कर सकता है, करता है; फिर भी बचा रह जाता है. तो इसका क्या हो ? क्या होता है?

‘एकदम ठीक! इसी शेष के लिए हमें विदेशी बाज़ार की ज़रुरत होती है. उसे विदेशों में बेचा जाता है. वही किया जा सकता है. उसे खर्चने का ओर उपाय नहीं है. और यही उपर्युक्त अतिरिक्त धन जो विदेशों में बेचा जाता है हमारी लिए सकारात्मक व्यापार संतुलन कहलाता है. क्या हम यहाँ तक सहमत हैं ?’

‘इस व्यवसाय के क, ख, ग से ही मैं आपको चकित करूंगा. यहीं. अमेरिका एक पूंजीवादी देश है जिसमें अपने संसाधनों का विकास किया है. अपनी पूंजीवादी औद्योगिक व्यवस्था से उसके पास काफी धन बच जाता है जिसका वह उपभोग नहीं कर पाता. उसे विदेशों में खर्च करना ज़रूरी है. यही बात दूसरे पूंजीवादी देशों के बारे में भी सच है. अगर उनके संसाधन विकसित हैं तो यह न भूलें कि आपस में खूब व्यापार करते हैं फिर भी अतिरिक्त काफी बच जाता है. इन देशों में मजदूर सारी मजदूरी खर्च कर देता है और इस बचे हुए अतिरिक्त को खरीदने में असमर्थ है. इन देशों में पूंजीपति जितना भी उपयोग कर सकते हैं करते हैं फिर भी बहुत कुछ बच जाता है. इस अतिरिक्त धन को वे एक दूसरे को नहीं दे सकते. फिर उसका वे क्या करें?’

‘उन्हें अविकसित संसाधनों वाले देशों में बेच दें.’ कोबाल्ट बोला.

‘एकदम यह ठीक है. मेरा तर्क इतना स्पष्ट और सीधा है कि आप स्वयं मेरा काम आसान कर रहे हैं. अब अगला कदम ! मान लिया यूनाइटेड स्टेट्स अपने अतिरिक्त धन को एक अविकसित देश जैसे ब्राजील में लगाता है. याद रखें यह अतिरिक्त उस व्यापार से अलग है जिसका इस्तेमाल हो चूका है. तो उसके बदले में ब्राजील से क्या मिलता है?’

‘सोना’ कोबाल्ट बोला.

‘लेकिन दुनिया में सोना तो सीमित है !’ अर्नेस्ट ने एतराज किया.

‘आप पहुँच गए. ब्राजील से अमेरिका अपने अतिरिक्त धन के बदले में लेता है सिक्युरिटी और बांड. इसका मतलब है अमेरिका ब्राजील रेल, फैक्ट्रियों, खदानों का मालिक बन सकता है. और तब इसका क्या मतलब हुआ ?’

कोबाल्ट सोचने लगा पर नहीं सोच पाया तथा नकारात्मक में सिर हिला दिया.

‘मैं बताता हूँ. इसका मतलब हुआ ब्राजील के संसाधन विकसित किए जा रहे हैं. जब ब्राजील पूंजीवादी व्यवस्था में अपने संसाधन विकसित कर लेगा तो उसके पास भी अतिरिक्त धन बचने लगेगा. क्या वह इसे अमेरिका में लगा सकता है ? नहीं क्योंकि उसके पास तो अपना ही अतिरिक्त धन है. तो क्या अमेरिका अपना अतिरिक्त धन पहले की ही तरह ब्राजील में लगा सकता है ? नहीं ; क्योंकि अब तो स्वयं ब्राजील के पास अतिरिक्त धन है.

‘ तब क्या होता है ? इन दोनों को तीसरा अविकसित देश ढूँढना पड़ेगा जहाँ से वे अपना सरप्लस उलीच सकें. इस क्रम से उनके पास भी अतिरिक्त धन बचने लगेगा. महानुभाव गौर करें धरती इतनी बड़ी तो है नहीं. देशों की संख्या सीमित है. तब क्या होगा जब छोटे से छोटे देश में भी कुछ अतिरिक्त बचने लगेगा?’

उसने रूककर श्रोताओं पर एक नज़र डाली. उनके चेहरों पर हवाईयां उड़ रही थीं. थोडा उसे मज़ा आया. जितने बिम्ब खींचे थे अर्नेस्ट ने उनमें से कई उन्हें डरा रहे थे.

मिस्टर काल्विन हमने ए बी सी से शुरू किया था. मैंने अब सारे अक्षर सामने रख दिए हैं. यही तो इसका सौन्दर्य है. क्या होगा जब देश के पास अतिरिक्त बचा रह जायेगा ओर आपकी पूंजीवादी व्यवस्था का क्या होगा ?’

अर्नेस्ट ने फिर शुरू किया :

‘ मैं अपनी बात संक्षेप में दोहरा दूं. हमने एक विशेष औद्योगिक प्रक्रिया से बात शुरू की थी. एक जूता फैक्ट्री से हमने पाया कि जो हाल वहां है वही सारे औद्योगिक जगत में हैं. हमने पाया कि मजदूर को उत्पादन का एक हिस्सा मिलता है जिसे वह पूरी तरह खर्च कर देता है और पूंजीपति पूरा खर्च नहीं कर पाता. बचे हुए अतिरिक्त धन के लिए विदेशी बाज़ार अनिवार्य है. इस निवेश से वह देश भी अतिरिक्त पैदा करने में सक्षम हो जायेगा. जब एक दिन सभी इस स्थिति में पहुँच जायेंगे तो अंतत: इस अतिरिक्त का क्या होगा?

किसी ने जवाब नहीं दिया.

‘काल्विन महोदय !’

‘मुझे समझ नहीं आ रहा.’ उसने स्वीकारा.

‘मैंने तो यह सपने में भी नहीं सोचा था पर यह तो एकदम स्पष्ट लग रहा है.’ ऐसमुनसेन ने कहा.

मैं कार्ल मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत की इतनी सरल प्रस्तुति सुन रही थी और मैं स्तब्ध और चकित बैठी थी…

इतिहास बोध प्रकाशन
बी-239, चन्द्रशेखर आजाद नगर
इलाहाबाद – 211004
दूरभाष : 0532/2546769 से प्रकाशित ‘आयरन हील’ – जैक लंडन
से साभार

श्रम और पूंजी की टक्कर – एक ऐसा ‘वैषम्य’ जिसका निपटारा बल प्रयोग द्वारा ही होता है

श्री दिनेशराय द्विवेदी जी द्वारा लिखित आलेख ‘उद्यम भी श्रम ही है‘ और श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय द्वारा लिखित आलेख ‘उद्यम और श्रम’ की टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में यह ज़रूरी हो गया कि पाठको को पूंजी और श्रम के उस बुनियादी ‘वैषम्य’ जो इन दोनों के बीच है – इस ‘वैषम्य’ का निपटारा किसी तीसरे हम जैसे पाठक या जज की दखलान्दाजी से सर्वदा मुक्त है, इस बिंदु को समझना होगा और अपने मनोगत विचारों से मुक्ति पानी होगी.

श्रम-शक्ति अन्य वस्तुओं की तरह एक जिंस (commodity) होती है लेकिन अन्य जिंसो से इसलिए अलग है कि इसे मनुष्य के शरीर से अलग नहीं किया जा सकता और दूसरी जिंसों के विपरीत यह अकेली ऐसी जिन्स है जो बेशी मूल्य या अतिरिक्त मूल्य या अधिशेष (surplus value) पैदा करती है.

लेकिन दूसरी जिंसों की तरह ही इसका भी बाज़ार में विनिमय होता है. दूसरी जिंसों की तरह इसका मूल्य भी इसके पुनरुत्थान पर खर्च – श्रम शक्ति के बराबर होता है. लेकिन एक बार पूंजीपति द्वारा इसे खरीदने पर उसे यह अधिकार मिल जाता है कि वह इसका ‘काम का दिन’ में मूल्य पैदा करने के लिए उपयोग कर सके .

‘काम का दिन’ के दौरान मजदूर द्वारा किया गया वह श्रम जो उसके जिन्दा रहने और उसकी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी होता है, ज़रूरी श्रम कहलाता है जबकि इसके अतिरिक्त समय के लिए किया गया श्रम – यही, केवल यही वह श्रम होता है जो अतिरिक्त मूल्य, या बेशी मूल्य, या अधिशेष (surplus value) जिसे लूटने वाला पूंजीपति वर्ग अपनी बहियों में “शुभ लाभ” के नाम से दर्ज करता है, अतिरिक्तश्रम कहलाता है.

लेकिन प्रश्न उठता है कि ‘काम का दिन’ की लम्बाई की क्या परिभाषा या ‘परिमाण’ हो ? पूंजीपति इसे ज्यादा से ज्यादा लम्बा करना चाहेगा जबकि श्रमिक इसे छोटा !

मार्क्स की ‘पूंजी’ के प्रथम खंड के ‘काम के दिन’ नामक अध्याय से यह उद्धरण जिसमें एक मजदूर पूंजीपति को संबोधित है, काबिले-गौर है ;

मैंने जो पण्य (जिंस) तुम्हारे हाथ बेचा है, वह दूसरे पण्यों की भीड़ से इस बात में भिन्न है कि उसका उपयोग मूल्य का सृजन करता है, और वह मूल्य उसके अपने मूल्य से अधिक होता है. इसलिए तो तुमने उसे खरीदा है. तुम्हारी दृष्टि में जो पूँजी का स्वयंस्फूर्त विस्तार है, वह मेरी दृष्टि में श्रम शक्ति का अतिरिक्त उपभोग है. मंडी में तुम और मैं केवल एक ही नियम मानते है, और वह है पण्यों का विनिमय का नियम. और पण्यों के उपभोग पर बेचने वाले का, जो पण्य को हस्तांतरित कर चुका है, अधिकार नहीं होता; पण्य के उपभोग पर उसे खरीदने वाले का अधिकार होता है, जिसने पण्य को हासिल कर लिया है. इसलिए मेरी दैनिक श्रमशक्ति के उपभोग पर तुम्हारा अधिकार है. लेकिन उसका जो दाम तुम हर रोज देते हो, वह इसके लिए काफी होना चाहिए कि मैं अपनी श्रमशक्ति का रोजाना पुनरुत्पादन कर सकूँ और उसे फिर से बेच सकूँ. बढती हुई आयु, इत्यादी के कारण शक्ति का जो स्वाभाविक ह्रास होता है, उसको छोड़कर मेरे लिए यह संभव होना चाहिए कि मैं हर नयी सुबह को पहले जैसे सामान्य बल, स्वास्थ्य तथा ताज़गी के साथ काम कर सकूँ. तुम मुझे हर घडी “मितव्ययिता” और “परिवर्जन” का उपदेश सुनाते रहते हो. अच्छी बात है ! अब मैं भी विवेक और “मितव्ययिता” से काम लूँगा और अपनी एकमात्र संपत्ति – यानि अपनी श्रम-शक्ति – के किसी भी प्रकार के मूर्खतापूर्ण अपव्यय का परिवर्जन करूंगा. मैं हर रोज अब केवल उतनी ही श्रमशक्ति का उपयोग करूंगा, केवल उतनी ही श्रमशक्ति से काम करूंगा, केवल उतनी ही श्रमशक्ति को क्रियाशील बनाउंगा, जितनी उसकी सामान्य अवधि तथा स्वस्थ विकास के अनुरूप होगी. काम के दिन का मनमाना विस्तार करके, मुमकिन है, तुम एक ही दिन में इतनी श्रमशक्ति इस्तेमाल कर डालो, जिसे मैं तीन दिन में भी पुन: प्राप्त न कर सकूँ. श्रम के रूप में तुम्हारा जितना लाभ होगा, श्रम के सारतत्त्व के रूप में उतना ही मेरा नुकसान हो जायेगा. मेरी श्रमशक्ति का उपयोग करना एक बात है, और उसे लूटकर चौपट कर देना बिलकुल दूसरी बात है. यदि एक औसत मजदूर (उचित मात्रा में काम करते हुए) औसतन तीस वर्ष तक जिंदा रह सकता है, तो मेरी श्रमशक्ति का वह मूल्य, जो तुम मुझे रोज देते हो, उसके कुल मूल्य का 1/365*30 या 1/10,950 वां भाग होता है. किन्तु यदि तुम मेरी श्रमशक्ति को तीस के बजाए दस वर्षों में ही खर्च कर डालते हो तो तुम रोजाना मुझको मेरी श्रमशक्ति के कुल मूल्य के 1/3,650 के बजाए उसका 1/10,950 , यानि उसके दैनिक मूल्य का केवल 1/3 ही देते हो. इस तरह तुम मेरे पण्य के मूल्य का 2/3 भाग प्रतिदिन लूट लेते हो. तुम मुझे दाम दोगे एक दिन की श्रमशक्ति के, लेकिन इस्तेमाल करोगे तीन दिन की श्रमशक्ति. यह हम लोगों के करार और विनिमय के नियम के खिलाफ है. इसलिए मैं मांग करता हूँ कि काम का दिन सामान्य लम्बाई का हो, (मजूदूर के लिए सामान्य लम्बाई का अर्थ उतना ही है जितना उसकी श्रम शक्ति के पुनरुत्थान के लिए ज़रूरी है -अधिशेष के लिए एक पल भी अतिरिक्त नहीं ) और इस मांग को मनमाने के लिए मैं तुम्हारे हृदय को द्रवित नहीं करना चाहता, क्योंकि रूपए-पैसे के मामले में भावनाओं का कोई स्थान नहीं होता. मुमकिन है कि तुम एक आदर्श नागरिक हो, संभव है कि तुम पशु-निर्दयता- निवारण समिति के सदस्य भी हो और ऊपर से तुम्हारा साधुपन सारी दुनिया में विख्यात हो. लेकिन मेरे सामने खड़े हुए तुम जिस चीज का प्रतिनिधित्व करते है, उसकी छाती में हृदय का प्रभाव है. वहां जो कुछ धड़कता सा लगता है, वह मेरे ही दिल की आवाज है. मैं सामान्य दीर्घता के काम के दिन की इसलिए मांग करता हूँ कि दूसरे हर विक्रेता की तरह मैं भी अपने पण्य का पूरा-पूरा मूल्य चाहता हूँ.

इस तरह हम देखते हैं कि कुछ बहुत ही लोचदार सीमाओं के अलावा पण्यों के विनिमय का स्वरूप खुद काम के दिन पर, या बेशी श्रम पर, कोई प्रतिबन्ध नहीं लगता. पूंजीपति जब काम के दिन को ज्यादा से ज्यादा खींचना चाहता है, और मुमकिन है, तो एक दिन के दो दिन बनाने की कोशिश करता है, तब वह खरीददार के रूप में अपने अधिकार का उपयोग करता है. दूसरी तरफ, उसके हाथ बेचा जाने वाला पण्य इस अजीब तरह का है कि उसका खरीददार एक सीमा से अधिक उपयोग नहीं कर सकता, और जब मजदूर काम के दिन को घटाकर एक निश्चित एवं सामान्य अवधि का दिन कर देना चाहता है, तब वह भी बेचने वाले के रूप में अपने अधिकार का ही प्रयोग करता है. इसलिए यहाँ असल में अधिकारों का विरोध सामने आता है, एक अधिकार दूसरे अधिकार से टकराता है, और दोनों अधिकार ऐसे हैं, जिन पर विनिमय की मुहर लगी हुई है. जब सामान अधिकारों की टक्कर होती है, तब बल प्रयोग द्वारा ही निर्णय होता है. यही कारण है कि पूंजीवादी उत्पादन के इतिहास में काम का दिन कितना लम्बा हो, इस प्रश्न का निर्णय एक संघर्ष के द्वारा होता है, जो संघर्ष सामूहिक पूँजी अर्थात पूंजीपतियों के वर्ग और सामूहिक श्रम अर्थात मजदूर वर्ग के बीच चलता है.


related posts

जब औजार क्रांति की माँग करते हैं

शुक्रवार, 12 जून 2009

आज के किसान का चरित्र - हमारी पहुँच - कुछ और स्पष्टता

“कांग्रेस की जीत पर अफलातून और सुरेश चिपलूनकर
के दुःख में हम भी शरीक होते मगर …
की टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में

लखविंदर

साथी,
आपने अपने ब्लॉग में लिखा है,

“आज के किसान का चरित्र वह नहीं है जो तब था और वह मजदूर के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति का वाहक था जो नहीं हुई. इसके विपरीत राष्ट्रीय जनतंत्र के कार्यभार ने बुर्जुआ राज्य और बुर्जुआ सरकारों के नेतृत्व में प्रशियाई जुन्कर तरीके से धीमे परन्तु पीडादायक तरीके से संपन्न होना था और वह हुआ भी. इस दौरान किसान उस मेहनतकश के क्रांतिकारी चरित्र को खो बैठा जो कि मजदूर वर्ग की सहायक रिजर्व सेना का होता है. पूँजी का सताया यह वर्ग यदि क्रांतिकारी दीखता है तो केवल इसलिए क्योंकि मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से अपना दृष्टिकोण त्यागकर यह अपना भविष्य सुरक्षित कर लेना चाहता है. हम इसका स्वागत करते हैं परंतु मजदूरों के हितों को ताक में रखकर इनके बोनुस, लाभकारी मूल्यों की हिफाजत की वकालत हम नहीं करते. हाँ, बुर्जुआ राज्य द्वारा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पूँजी की चाकरी बजाते हुए पुलिस और फौज द्वारा इनके हासिल जनतांत्रिक अधिकारों के हनन की हम भर्त्सना करते हैं बेशक किसी लाल झंडे के नेतृत्व में कामरेडों ने वह कर दिखाया हो जिसे करने में बुर्जुआ दल भी शरमातें हैं.”

इससे किसानों के बारे में हमारी पहुँच स्पष्ट नहीं होती है। मैं कुछ स्पष्ट करना चाहता हूँ।

नव-जनवादी क्रांति के बारे में: उत्पादन व्यवस्था अर्ध-सामंती होने के चलते इस व्यवस्था के विरूध होने वाली क्रांति का चरित्र पूंजीवादी ही हो सकता था। उदाहरण के तौर पर कहा जाये तो सामंतों से भूमि की जब्ती और उसे किसानों को उनकी निजी जायदाद बना देने की मांग, स्वभाविक तौर पर उस समय की पूरी तरह से जायज मांग, एक पूंजीवादी जनवादी मांग है। स्पष्ट है कि इस तरह की क्रांति की धुरी और मुख्य ताकत सामंती व्यवस्था से उत्पीडत किसाने ही बन सकते हैं। लेकिन क्रांति की अगुवाई अपनी क्रांतिकारी पार्टी के जरिये मजदूर वर्ग ही करता है जो आगे चलकर समाजवादी क्रांति को अंजाम देता है।

लेकिन आज जब सामंती या अर्ध-सामंती उत्पादन व्यवस्था नहीं बल्कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था है, उत्पादन के साधनों (कारखाने, भूमि, खदानें आदि) के समाजीकृत किये जाने से ही समाज आगे की दिशा में बढ़ सकता है। जमीन हलवाहक की या जमीन की दुबारा बाँट का प्रश्न हल हो चुका है ( जैसे कि आपने चर्चा की ही है।) यानि क्रांति का चरित्र अब पूंजीवादी जनवादी नहीं बल्कि समाजवादी है। मजदूर वर्ग (शहरी और ग्रामीण दोनों मिलाकर, यह इसलिये रेखांकित किया क्यों कि आम तौर पर लोग गलतफहमी में सिर्फ इंडसट्रीयल वर्करों को ही मजदूर वर्ग मान बैठते हैं।) क्रांति की अगुवाई तो करेगा ही साथ में क्रांति की मुख्य ताकत भी बनता है। गरीब किसान जो किसानी का बहुसंख्यक हिस्सा हैं क्रांति का सच्चा मित्र होगा। पूंजीवादी समाज में उसकी समस्याओं का हल ज़मीन के और मुट्ठीभर टुकड़े से हल होने वाला नहीं है। समाजवाद ही उसकी समस्याओं का हल कर सकता है। किसानी का धनी हिस्सा क्रांति का कट्टर दुश्मन बनता है। मध्यम किसान का चरित्र ढुलमुल मित्र वाला रहेगा। समाजवादी/ कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की यह पुरजोर कोशिश रहेगी कि यह हिस्सा अधिक से अधिक क्रांति के पक्ष में खड़ा हो। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि किसानों के इन मित्र हिस्सों के सक्रिय समर्थन के बिना समाजवादी क्रांति विजयी नहीं हो सकती। लेकिन किसानों को साथ में लेने के लिये हम वह मुद्दे नहीं उठायेंगे जो मजदूर वर्ग के विरोध में जाते हों (जैसे कि आपने चर्चा की है)। सांझे मुद्दों के आधार पर सांझा मोर्चा बनाया जा सकता है। आवास, रोजगार, शिक्षा, महंगाई, असुरक्षा जैसे अनेकों अनेक मुद्दे हैं जो पूँजीवाद हल कर ही नहीं सकता। समाजवादी ही इन समस्याओं का हल कर सकता है। यह मुद्दे इन्हें पूंजीवादी राज्यसत्ता के कट्टर विरोधी बनाते हैं और समाजवादी के पक्ष में ला खड़ा करते हैं।

( मैंने समय की कमी के चलते बहुत थोड़े में अपनी बात कहनी की कोशिश की है। आपकी बात पढ़ कर मुझे यह लगा था कि आप किसानी के मित्र हिस्सों की क्रांति में भूमिका को ठीक से रेखांकित नहीं किये हैं जो कि बेहद जरूरी है। अगर हम किसानी के बारे में बात करते हुये किसानी के मित्र हिस्से की अहम भूमिका को ठीक से रेखांकित नहीं करेंगे तो हमें ट्राटस्कीवाद के पैरोकार ही समझ लिया जायेगा। उम्मीद है आप मेरी बात को समझ पा रहे होंगे।)

related post ;

कांग्रेस की जीत…अफलातून और सुरेश चिपलूनकर… कुछ विशेष टिप्पणियों का सामान्य जवाब

मंगलवार, 9 जून 2009

कांग्रेस की जीत…अफलातून और सुरेश चिपलूनकर… कुछ विशेष टिप्पणियों का सामान्य जवाब

कड़ी जोड़ने के लिए देखे :

“कांग्रेस की जीत पर अफलातून और सुरेश चिपलूनकर के दुःख में हम भी शरीक होते मगर …की टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में

“हमने लिखा
“आज से 40-50 साल पहले देहाती विशेषकर किसान को बेवकूफ समझा जाता था, इसलिए नहीं कि वास्तव में किसान या देहाती बेवकूफ होते हैं…..साथ ही हमने जोड़ा था कि “वह किसान रहा हो जो बीज को शुष्क, या भिगोकर, गहरे में या धरती के ऊपर बिखेरकर और हर मौसम, हर प्रकार की भूमि में उसे उगाने का ज्ञान रखता था.”
किसी प्रकार की गलतफहमी न हो हम साफ़ कर देना चाहते हैं कि;

आज के किसान का चरित्र वह नहीं है जो तब था और वह मजदूर के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति का वाहक था जो नहीं हुई. इसके विपरीत राष्ट्रीय जनतंत्र के कार्यभार ने बुर्जुआ राज्य और बुर्जुआ सरकारों के नेतृत्व में प्रशियाई जुन्कर तरीके से धीमे परन्तु पीडादायक तरीके से संपन्न होना था और वह हुआ भी. इस दौरान किसान उस मेहनतकश के क्रांतिकारी चरित्र को खो बैठा जो कि मजदूर वर्ग की सहायक रिजर्व सेना का होता है. पूँजी का सताया यह वर्ग यदि क्रांतिकारी दीखता है तो केवल इसलिए क्योंकि मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से अपना दृष्टिकोण त्यागकर यह अपना भविष्य सुरक्षित कर लेना चाहता है. हम इसका स्वागत करते हैं परंतु मजदूरों के हितों को ताक में रखकर इनके बोनुस, लाभकारी मूल्यों की हिफाजत की वकालत हम नहीं करते. हाँ, बुर्जुआ राज्य द्वारा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पूँजी की चाकरी बजाते हुए पुलिस और फौज द्वारा इनके हासिल जनतांत्रिक अधिकारों के हनन की हम भर्त्सना करते हैं बेशक किसी लाल झंडे के नेतृत्व में कामरेडों ने वह कर दिखाया हो जिसे करने में बुर्जुआ दल भी शरमातें हैं.

हमने बार-बार लिखा है कि सीपीआई, सीपीआई (एम) सीपीआई (एम एल ) संशोधनवादी पार्टियाँ हैं और इनका चरित्र बुर्जुआ पार्टियों से कहीं ज्यादा, कहीं अधिक कुटील है लेकिन इनकी कतारों की बहुसंख्यक गिनती और इनके समर्थक बुद्धिजीवियों की बहुसंख्या, अब भी ईमानदार है हालाँकि ,किसी भी वस्तु, घटनावृत अथवा व्यापार की गतिकी की दशा-दिशा इस बात पर निर्भर करती है कि वस्तु, घटनावृत अथवा व्यापार के बुनियादी मुख्य विरोधी ध्रुवों में प्रधानता किसकी है. इस घटनावृत को ठीक इसी प्रकार समझा जा सकता है जैसे किसी समाज में मेहनतकश अवाम तो बहुसंख्यक हो लेकिन उस समाज की विरोधों की एकता से पैदा होने वाली गतिकी उसके पक्ष के विपरीत अल्पसंख्यक परजीवी वर्गों के पक्ष में हल होती हो.

लेकिन निम्नलिखित रिपोर्ट में वर्णित तथ्य भी गौर करने लायक हैं ;

1990 के दशक में, सी.पी.एम. की चंडीगढ़ में संपन्न हुई पंद्रहवीं कांग्रेस में एक चौकाने वाला तथ्य प्रकाश में आया. पार्टी के आधे से ज्यादा सदस्य गैर-मेहनतकश वर्ग और गैर-किसान वर्ग से आये थे या यूं कहें कि – मिडल क्लास से. इससे सी.पी.एम. की मेहनतकश वर्गों को जन-आंदोलनों में न खींच सकने की क्षमता और उसके रेडिकल शिक्षित युवा की और आकर्षण का पता चलता है. उस समय से जारी इस नुक्स और बेपरवाही के चलते हालत यह हो गयी है कि विद्यार्थियों, युवायों और महिलायों के मोर्चे ही लगभग सभी पोलित ब्यूरो और संसद के टॉप नेताओं की आपूर्ति करते हैं. नव युवाओं में शायद ही कोई सदस्य हो जो ट्रेड यूनियन, किसान और जन-आन्दोलन से उठकर आया हो. हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु किसान और श्रमिक वर्ग आंदोलनों से उभरे थे जबकि प्रकाश करात और बुद्धदेव भट्टाचार्य विश्वविद्यालयों के कुलीन वर्ग से आये हैं. पार्टी में इस मालदार शिक्षित वर्ग की प्रधानता ने पार्टी को ,जिसे कहा जा सकता है कि, “तर्कसंगत सिद्धांतों की राजनीति” में बदल दिया…देखें : A Logical Defeat

कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी कम्युनिस्टों के इस प्रकार अलग-अलग खेमों में बँटे होने से चिंतित हो जाते हैं. हालाँकि कुछ विशेष परस्थितियों में ‘टैक्टिस’ के लिहाज़ से यहाँ तक कि जनतांत्रिक बुर्जुआ दलों तक के साथ सांझे मोर्चे के लिए समझौता करने से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन समझौता आखिर समझौता ही होता है जो कभी भी किसी पक्ष को, एक पल के लिए भी, पीडामुक्त नहीं करता और उसे दशकों तक निभाना (यहाँ इशारा भारतीय वाम मोर्चा से है) हद दर्जे की निम्न अवसरवादिता नहीं तो और क्या है?

जहाँ तक सैद्धांतिक एकता का प्रश्न है तो मजदूरों के लिए लेनिन के कहे गए इन शब्दों का आज भी उतना ही महत्त्व है,

“मज़दूरों को एकता की ज़रूरत अवश्य है और इस बात को समझना महत्त्वपूर्ण है कि उन्हें छोड़कर और कोई भी उन्हें यह एकता ‘प्रदान’ नहीं कर सकता, कोई भी एकता प्राप्त करने में उनकी सहायता नहीं कर सकता। एकता स्थापित करने का ‘वचन’ नहीं दिया जा सकता – यह झूठा दम्भ होगा, आत्मप्रवंचना होगी (एकता बुद्धिजीवी ग्रुपों के बीच ‘समझौतों’ द्वारा ‘पैदा’ नहीं की जा सकती। ऐसा सोचना गहन रूप से दुखद, भोलापन भरा और अज्ञानता भरा भ्रम है।” “एकता को लड़कर जीतना होगा, और उसे स्वयं मज़दूर ही, वर्गचेतन मज़दूर ही अपने दृढ़, अथक परिश्रम द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। इससे ज्यादा आसान दूसरी चीज़ नहीं हो सकती है कि ‘एकता’ शब्द को गज-गज भर लम्बे अक्षरों में लिखा जाये, उसका वचन दिया जाये और अपने को ‘एकता’ का पक्षधर घोषित किया जाये।”

शब्द कम्युनिस्ट से अभिप्राय सत्तासीन दल के शेयर होल्डर रहे संशोधनवादी वामपंथी धडे और दुस्साहसवादियों से लिया जाता हैं. हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि छिटपुट ही सही परंतु कुछ क्रांतिकारी ग्रुप उपरोक्त दो धाराओं से बिलकुल हटके हैं लेकिन इसका मतलब हरगिज़ नहीं कि कोई नया मार्क्सवाद ईजाद कर लिया गया है बल्कि आज विपर्य के इस दौर में मार्क्सवाद की हिफाजित तथाकथित मार्क्सवादियों से करने की सख्त ज़रुरत है और इन संशोधनवादी मार्क्सवादियों को नंगा करना क्रांतिकारी ग्रुपों का एक कार्यभार है जबकि दुस्साहसवाद इतना कुटील नहीं, उसे हराया जा सकता है. जहाँ तक सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के होने न होने का सवाल है, इसके लिए देखें : कहाँ से फूटेंगी उम्मीद की किरणें

हमारे कर्मों का मार्गदर्शक होते हुए मार्क्सवाद निरंतर विकासमान सिद्धांत है जिसे समय-समय पर कर्म-सिद्धांत-कर्म के सूत्र द्वारा एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन माओ आदि मार्क्सवादियों ने विकसित किया है. वैज्ञानिक समाजवाद के प्रथम प्रयोग हार जाने के बाद, नई समाजवादी क्रान्तियों (समाजवादी क्रांतियाँ – क्योंकि 21वीं शताब्दी 20वीं शताब्दी से इसलिए भिन्न है कि दुनिया के लगभग प्रत्येक हिस्से में पूंजीवाद विकसित हो चूका है) का अगला चक्र शुरू ही होने वाला है.

मार्क्सवाद को असफल नहीं माना जा सकता अलबता मजदूर वर्ग का इस संक्रमण दौर में बुर्जुआओं से हार जाने का अर्थ केवल यही है कि समाजवादी क्रांतियों का प्रथम चक्र पूरा हो गया है और सर्वहारा वर्ग अगले चक्र की तैयारी की इस प्रचंड झंझावाती समय की पूर्वबेला से पहले सोया हुआ दीखता है लेकिन यह मान लेना कि मजदूरवर्ग नए समाजवादी क्रांतियों के तजुर्बे नहीं करेगा क्योंकि समाजवाद तो फेल हो चुका है , क्रांतिकारियों के लिए भाग्यवादी और पलायनवादी – हाथ पर हाथ रखकर बैठना होगा जबकि इसके विपरीत मजदूर वर्ग बड़ी शिद्दत के साथ समाजवादी क्रांतियों की इस प्रक्रिया को अंजाम देगा – बेशक हजारों-हज़ार क्रांतियाँ फेल हो जाएँ क्योंकि बुर्जुआ वर्ग अपने-आप तो उसे यह मौका देगा नहीं कि आओ मैं तुम्हें सिखाता हूँ कि राज्य का संचालन कैसे किया जाता है ! ऐसे में सर्वहारा के पास हारी हुई क्रांतियों के निष्कर्ष और निष्पत्तियों का समाहार करते हुए और मार्क्सवाद की कसौटी पर इसे आत्मसात करते हुए नए समाजवादी तजुर्बे करने और सीखने के सिवा और कोई चारा नहीं है. इसी प्रक्रिया द्वारा ही मार्क्सवाद एक कट्ठ्मुल्लापन (dogma) होने के विपरीत अभ्यास-सिद्धांत-अभ्यास द्वारा अपने विकास की उच्चतर मंजिल को छूएगा और यह क्रांतियों के पिछले रोल मॉडल रहे फ्रेमवर्कों को तहस नहस कर डालेगा.

सुरेश चिपलूनकर [ Suresh Chiplunkar ] के इन शब्दों “बहरहाल, अकेले प्याज़ के मुद्दे पर जब भाजपा सरकार गिर सकती है तो सभी वस्तुओं के गत 5 साल में तीन गुना महंगे होने पर भी सरकार का न गिरना “आश्चर्यजनक” क्यों नहीं है, यह मैं समझना चाहूँगा… वह भी आसान भाषा में, बोझिल भाषा में नहीं” का हम स्वागत करते हैं. हमने लिखा था

“वैसे सुरेश जी महंगाई से अनुभववादी तरीके से परेशान हो जाते हैं, ये महंगाई, ज़रा खोलकर हमें भी बताएं कि महंगाई कम होगी तो उस मजदूर वर्ग की जिसे प्रधानमंत्री 20 रूपए से कम पर गुजारा करते बताते हैं मजदूरी कम क्यों नहीं होगी ? बात ज़रा सिद्धांत की है सिद्धांत के क्षेत्र में रहकर एक राजनितिक अर्थशास्त्री की नज़र से ज़बाब दीजिएगा.”

पूंजीवादी में महंगाई कोई नया घटनावृत नहीं है. दशकों बीत गए जब मुंबईया फिल्मों में ‘बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गयी’, लोगों ने सुना और महंगाई की इस परिघटना को पूंजीवाद के एक ज़रूरी लक्षण के रूप में स्वीकार किया. दरअसल, पेट्टी-बुर्जुआ बुर्जुआओँ का सताया होने के कारण महंगाई -महंगाई चिल्लाने लगता है जबकि वस्तुओं और मजदूरी की दर सरकार द्वारा तय न होकर क्लासिकीय पूंजीवादी व्यवस्था में (इस क्लासिकीय पूंजीवाद के चेहरे को लोक-हितेषी दिखाने हेतू, 1930 की पहली विश्व महामंदी से डरे पूंजीवाद को बचाने के लिए कीन्स समाजवाद से उधार लेकर नुस्खे-टोटके प्रगट हुए थे जिसे बुर्जुआ राज्यों ने नवउदारवादी दौर में फैंक दिया. विडम्बना यह है कि पूंजीवाद कीन्स के नुस्खों-टोटकों की ओर वापस भी नहीं लौट सकता) मार्केट द्वारा मांग और पूर्ति के नियमानुसार निर्धारित होती हैं जिसे पूंजीवाद में निहित कई फैक्टर प्रभावित करते हैं क्योंकि मांग और पूर्ति अपने-आप वस्तुओं और मज़दूरी की दर तय नहीं कर सकती. पूंजीपतियों के चाटुकार बुद्धिजीवियों को भारत जैसे देश में, बेहद सस्ती दरों पर श्रम शक्ति का उपलब्ध होने का कारण, यहाँ की बढ़ी हुई जनसंख्या में दीखता है जबकि इसका राज प्रधानमंत्री के उस वक्तव्य में निहित है कि यहाँ की 70 प्रतिशत आबादी 20 या 20 रूपए से कम पर गुज़ारा करती है. श्रम-शक्ति के पुनरुत्थान के लिए इतना कम खर्च बहुत ही कम देशों में होता है. बहरहाल, कहना इतना ही है कि पूंजीवाद में, श्रम-शक्ति भी अन्य वस्तुओं की तरह एक जिंस (commodity) होती है और उसके पुनरुत्थान का खर्च या श्रम-शक्ति का मूल्य उसके पुनरुत्थान पर लगे सामाजिक ज़रूरी श्रम-समय (Socially necessary labor time) के बराबर होता है.

महंगाई से हम न केवल चिंतित हैं बल्कि इसकी सबसे ज्यादा मार सर्वहारा वर्ग पर ही पड़ने के कारण पीड़ित भी हैं लेकिन पेट्टी-बुर्जुआ के वर्ग दृष्टिकोण के अनुसार बिलकुल नहीं. चरित्र में भारत जैसी ही पूंजीवादी दृष्टिकोण अनुसार तेजी से विकास की और अग्रसर विश्व की ब्राजील, अर्जेंटीना, मेक्सिको, चीले, द. अफ्रीका, नाईजिरिया, मिस्त्र, ईरान, तुर्की, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिप्पीन्स, भारत आदि लगभग दर्ज़न एक अर्थव्यवस्थाओं को, मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण अनुसार, दुनिया के सबसे सस्ते मुल्को में शुमार करते हैं क्योंकि पूंजी द्वारा यहाँ उपलब्ध श्रम-शक्ति का अँध-शोषण, बेहद सस्ती दरों पर किया जाता है. सस्ती श्रम-शक्ति होने के कारण सस्ती जिन्से उपलब्ध करवाना केवल इन्हीं मुल्कों के बस की ही बात है. ये देश दुनिया के विकसित पूंजीवादी देशों के मुकाबले में सस्ती उपभोक्तावादी जिंसों का धडाधड उत्पादन कर रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी पूँजी के इस खेल में देशी पूंजीपति मिलकर सर्वहारा वर्ग का कचूमर निकाले हुए हैं जिसे हम विकास के नाम पर अनदेखा नहीं कर सकते. इस लिहाज से हमारा यह कहना कि भारत मुकाबलतन महंगा देश न होकर एक सस्ता देश है कहाँ गलत है ? क्या इसकी पुष्टि वे नहीं करते जिनके पास डॉलर हैं ? उपरी वर्गों की तो छोडिये मध्यम वर्ग के जीवन स्तर की 1970 की दशा और उसकी वर्तमान उपभोक्तावादी स्थिति की तुलना कीजिए. अब जरा सर्वहारा वर्ग जिसके बारे में प्रधानमंत्री जी बीस रूपए से कम गुजारा करने वाला वर्ग बताते हैं उसके 1970 के जीवन स्तर और आज के जीवन स्तर की तुलना कीजिए. क्या उसने उन चरागाहों को नहीं खो दिया जहाँ वह अपनी भेड़ बकरियां चराकर गुज़र-बसर कर लिया करता था? क्या उसके नीचे से उसकी झोंपडी की ज़मीन नहीं खिसक गयी है?

लेकिन हम सत्तर या उसके पीछे की दलदल में वापस लौटने का भी इरादा नहीं रखते हैं. कुछ महानुभावों की यादों में “अहा ग्राम्य जीवन’ का नोस्टालिजिया हो सकता है वे हमसे उसी नोस्टालिजिया में जीने की स्वतंत्रता की मांग कर सकते हैं जिसका हमें कोई शिकवा नहीं है लेकिन हम भी उनसे, लेनिन की भाषा की मदद लेकर, कहना चाहते हैं कि ऐ महानुभावों ! आप उस दलदल में लौट जाना चाहते हैं, आपको वहाँ लौटने की पूरी स्वतंत्रता और हक़ है लेकिन हम भी स्वतन्त्र हैं कि आप को उस दलदल में छोड़कर आगे बढे, हमें पूरा हक़ है कि, मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण अनुसार, इस पूंजीवाद के दानवी चेहरे से लोक-हितेषी मेक-अप का पर्दाफाश करें क्योंकि पूंजीवाद मेहनतकश अवाम की जीवनचर्या को पहले से कहीं ज्यादा बदतर, पहले से कहीं ज्यादा दुष्कर बनाए जा रहा है. विकास के नाम पर जिसमे पेट्टी-बुर्जुआ अपने दिलो-दिमाग को पूंजीपति टोली के साथ मिलाकर रखता है और विकास-विकास की चिल्ल-पौ मचाता रहता है लेकिन जब पूँजी अपने तर्क द्वारा उसे हजम कर जाती है तो वह चिल्लाने लग जाता है पर फिर भी वह अपने पेट्टी-बुर्जुआ दृष्टिकोण का त्याग नहीं करता – मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण को नहीं अपनाता, का उपहास उडाने की हमें भी पूरी स्वतंत्रता है. हम सर्वहारा वर्ग से आह्वान करते हैं कि पूंजी के इस दुश्चक्र को तोड़कर ही, वह केवल और केवल समाजवादी क्रांति द्वारा समाज और इतिहास को आगे गति दे सकता है क्योंकि पूंजी अपने ही तर्क द्वारा अप्रासंगिक हो चुकी है , यदि वह प्रासंगिक है तो केवल उसके हरकत में न होने से है.

विज्ञान की प्रत्येक शाखा की अपनी एक अलग शब्दावली होती है. फिजिक्स, कैमिस्ट्री या जीवविज्ञान का अध्ययन करते समय नए विद्यार्थियों को उनके कुछ शब्द सीखने पड़ते हैं. इसी प्रकार राजनीती और समाजशास्त्र के सिद्धांतों के अध्ययन के वक्त सम्बंधित शब्दावली की गैर-मौजूदगी में ये विषय बेहद “बोझिल” और कठिन लगते हैं. सुरेश चिपलूनकर कहते हैं;

“मैं तो एक मूढ़ व्यक्ति हूँ”, न तो मैं बड़ी-बड़ी ना समझ में आने वाली पुस्तकें पढ़ता हूँ, न ही वैसा लिख पाता हूँ… :) । मैंने तो अपनी असफ़लता को भी खुल्लमखुल्ला स्वीकार किया है” और वे मांग करते हैं कि “मैं समझना चाहूँगा… वह भी आसान भाषा में, बोझिल भाषा में नहीं…।”

विज्ञान की भाषा विज्ञान के युग में वैज्ञानिक न होगी तो कैसी होगी. क्या हम रोजमर्रा की खाने-पीने और अघाने वाली भाषा द्वारा इसका अध्ययन-मनन कर सकते हैं ? यह मेहनत से जी चुराना नहीं तो और क्या है? यह सब पलायनवाद नहीं तो और क्या है ?

रहा सवाल, मजदूर वर्ग द्वारा इस भारी-भरकम शब्दाबली को सीखने-समझने का तो इतना ही कहना काफी है कि मार्क्स की ‘पूंजी’ छपते ही, जर्मन की मजदूर जमात में लोकप्रिय हो गयी थी. हाँ, प्रोफेसरों को इसे समझने-पढने में जो दिक्कत आती है उसके बारे में हम कुछ कह नहीं सकते. मौजूदा समय विपर्य का दौर है – मजदूर वर्ग की लहर का दौर नहीं. बुद्धिजीवी वर्ग के लिए इस तरह के दौर का इतिहास में बड़ा महत्त्व रहा है क्योंकि इस शांति भरे दौर (?) में वह चिन्तन-मनन करने के लिए काफी समय निकाल सकता है. जहाँ तक लहर के दौर का सवाल है तो उस वक्त सर्वहारा वर्ग यह नहीं देखता कि मार्क्स, लेनिन, माओ आदि ने क्या कहा. वह देखता है तो अपने हित ! उस वक्त समस्या होती है तो बुद्धिजीवी वर्ग के लिए. सैद्धांतिक अस्त्र से रहित उसके प्रतिक्रियावादियों के हाथों खेल जाने की पूरी-पूरी संभावना होती है जबकि इसके विपरीत अगर वह सिद्धांत से चाक-चौबंद होता है तो क्रांति और समाज को आगे की ओर गति देने वाली उस वाहक शक्ति को वह, सही दिशा प्रदान कर सकता है और एक नए युग का सूत्रपात करने में अपनी भूमिका निभा सकता है, ठीक वैसे ही जैसे एक प्रसूति-विशेषज्ञ की भूमिका जनन-पीड़ाओं को कम करने की होती है.

दूसरा सवाल कि सिद्धांत को अमल द्वारा कैसे परखा जाये तो इतना ही कहना काफी है कि मार्क्सवाद कोई एकेडमिक चीज तो है नहीं ! इसे परखने की लैब तो यह समाज ही है. इसके लिए बस इतना ही, कि आमलेट खाने के लिए अंडा तो फोड़ना ही होगा.

अंत में एक बार फिर, हम बुद्धिजीवी वर्ग का आह्वान करते हैं कि वह आगे बढे और इस संजीदा बहस को संजीदगी के साथ ही आगे बढाए.

नोट : श्रम-शक्ति अन्य वस्तुओं की तरह एक जिंस (commodity) होती तो है लेकिन अन्य जिंसो से इसलिए अलग है कि इसे मनुष्य के शरीर से अलग नहीं किया जा सकता और दूसरी जिंसों के विपरीत यह अकेली ऐसी जिन्स है जो बेशी मूल्य या अतिरिक्त मूल्य या अधिशेष (surplus value) पैदा करती है.

related posts

कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है

कांग्रेस की जीत पर अफलातून और सुरेश चिपलूनकर

के दुःख में हम भी शरीक होते मगर …


शुक्रवार, 5 जून 2009

“कांग्रेस की जीत पर अफलातून और सुरेश चिपलूनकर के दुःख में हम भी शरीक होते मगर …की टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में

इस पोस्ट से सम्बंधित प्राप्त टिप्पणियों के पश्चात् यह ज़रूरी हो गया है कि इस विषय पर वाद-विवाद जारी रखा जाये. चूंकि वर्तमान समाज वर्गों में विभाजित है इसलिए समाज में विचारों और दृष्टिकोण की विभिन्नता होना स्वाभाविक और लाजिम है; कि विचारों की विभिन्नता और उनके बीच जारी संघर्ष विचारों के विकास की ज़रूरी शर्त है. कला नैतिकता, धर्म, राजनीति, दर्शन आदि ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में मौजूद विचार चेतना के ही रूप हैं. हालाँकि सामाजिक चेतना का कोई भी रूप वस्तुगत यथार्थ से स्वतन्त्र नहीं होता बल्कि मानवी दिमाग अन्दर वस्तुगत यथार्थ का ही प्रतिबिम्बन होता है. सर्वहारा वर्ग के नव पुनर्जागरण और सर्वहारा वर्ग के नवप्रबोधन का यह आधुनिक दौर समाज, राजनीति और संस्कृति आदि विषयों पर बुद्धिजीवी वर्ग से पहले के मुकाबले में कहीं अधिक संजीदगी की मांग करता है. अफ़सोस तब होता है जब विद्वान् कहलवाने वाले कुछ सज्जन बिना जाँच-परख किए और निम्न दर्जे के फतवे जारी करते हुए अपनी घोर अज्ञानता और असहनशीलता का प्रगटावा करते हुए दिखाई देते हैं.

लोकसभा चुनावों में जीत-हार के विश्लेषण की अपेक्षा पूंजीवादी जनतंत्र के नाम खेले जाने वाले इस खेल में, आम आदमी के साथ होने वाले छल को समझना ज़्यादा ज़रूरी है. आर्थिक असमानता की इस प्रणाली में राजनितिक अधिकारों की असमानता का जो हश्र होता है, वह किसी व्याख्या की मांग नहीं करता. बेहद खर्चीले इन चुनावों में बड़ी-बड़ी पूंजीवादी पार्टियाँ स्टार खिलाडी की हैसियत से सबसे ज्यादा पैसा बहाती हैं. क्षेत्रीय पूंजीपतियों की पार्टियाँ और निम्न बुर्जुआ विचारधारा की छोटी पार्टियाँ भी अपनी क्षमता से अधिक जोर-आजमाईश करती हैं. वामपंथी पार्टियाँ जो देश के कुछ भागों में असरदायक हैं, ने कभी भी मजदूरों और किसानों के संघर्षों को आर्थिक संघर्षों के दायरे से बाहर नहीं आने दिया. राजनीती के क्षेत्र में भी इनकी कार्रवाही सामाजिक-जनवाद यानिकि छोटे-मोटे आर्थिक सुधारों की लडाई तक सिमिट कर रह गयी है. ‘राज्य’ के चरित्र का ठोस विश्लेषण करके, देश में जारी वर्ग संघर्ष में, अलग-अलग वर्गों की पार्टियों का ठोस विश्लेषण करके, समाजवादी क्रांति का कोई प्रोग्राम ड्राफ्ट करना तो इनके एजेंडा पर रह ही नहीं गया है . पूंजीपति वर्गों द्वारा प्रायोजित किए जाने वाले जनतंत्र के इस खेल में, ये भी अपनी किस्मत-आजमाईश के लिए प्रयत्नशील रहते हैं.

वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के इस दौर में आम लोगों की कंगाली और बदहाली में कई गुना बढोत्तरी हो चुकी है.

देश के कई हिस्सों, विशेषतय: पश्चिमी बंगाल में किसानों में वामपंथ का काफी प्रभाव रहा है. कृषि में पूंजीवादी विकास ने किसानी क्षेत्र में जो आक्रोश पैदा किया है, कभी वामपंथ उस आक्रोश का प्रतिनिधित्व करता रहा है जबकि अब इस किसान वर्ग का प्रतिनिधित्व अन्य निम्न-बुर्जुआ हाथों में जाता हुआ साफ दीखाई दे रहा है.

इन चुनावों में 10 हज़ार करोड़ रूपए से अधिक की राशिः के ‘इन्वेस्ट’ (?) होने की रिपोर्टें हैं. पूंजीवादी ढांचे के अर्न्तगत बड़ा उत्पादक निरंतर छोटे उत्पादक को हड़प करता रहता है लेकिन अपनी विशेष आवश्यकताओं के मद्देनज़र बड़े उत्पादक को, किसी हद तक, छोटे उत्पादक की निरंतर आवश्यकता बनी रहती है. इसलिए नष्ट होने के साथ-साथ छोटा उत्पादक नए-नए रूपों में, जन्म भी लेता रहता है. जहाँ तक प्रतिस्पर्द्धा का सम्बन्ध है, छोटा उत्पादक बड़े उत्पादक के मुकाबले टिक नहीं पाता बल्कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बड़े उत्पादक के रहमोकर्म पर आश्रित और श्रापित होता है. राजनीती में यही अमल सीधे-सरल रूप से तो नहीं पर बड़े ही जटिल ढंग से प्रतिबिंबित होता है. लेकिन पूंजीवाद का बुनियादी स्वभाव यहाँ पर भी कायम रहता है. बड़े पूंजीपतियों की पार्टियों के समक्ष छोटे पूंजीपतियों की पार्टियों का जमें रहना, इतना आसान नहीं होता. पूंजीवादी चुनावों में छोटी पूंजीवादी पार्टियों का वही हाल होता है जो पूंजीवादी उत्पादन के क्षेत्र में छोटे उत्पादकों का होता है. इन चुनावों में करोड़पति प्रतिनिधियों की संख्या पहले से कहीं अधिक है और शेष बचे हुए सांसद करोड़पतियों के बफादार सेवादारों की हैसियत से, ससंद में पहुंचे हैं.

जहाँ तक विश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों का सम्बन्ध है, लगभग सभी संसदमार्गी पार्टियों के बीच आम सहमति बन गयी है – यहाँ तक कि वामपंथी पार्टियाँ भी, सैद्धांतिक विरोध के बावजूद, अमल में इन्हें लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. बंगाल की मिसाल तो सामने है ही, केंद्र में भी वामपंथी पार्टियों की हिमायत से चलने वाली पिछली श्री मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा भी यह अमल निर्बाध रूप से जारी रहा. हाँ, अपने-अपने वोट-बैंक के हिसाब-किताब के साथ-साथ, इन सभी पार्टियों के दरमियान, इन नीतियों को लागू करने सम्बन्धी तौर-तरीकों बारे मतभेद रहे हैं.

संसदीय चुनाव, बहुसंख्यक आबादी की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. इस सारे अमल में, आम आदमी की हालत का अंदाजा पाठक स्वयं लगा सकते हैं! जहाँ तक आम आदमी के स्वयं समझने का सवाल है, वह पहले से कहीं अधिक बेहतर ढंग से समझे हुए है.

जब आम आदमी की बात हो रही हो तो तब हमारे कुछ विद्वान् बुद्धिजीवी सज्जन मेहनतकश वर्ग के बारे में बड़ी ही अजीब किस्म की धारणा पाले बैठे हैं. वे आम लोगों को अनपढ, गंवार या पता नहीं और किन-किन खिताबों से नवाजते हैं. आओ ज़रा हकीकत पर नज़र डालें.

पढाई या ज्ञान का बुनियादी मकसद, जिन्दा रहने या मानव के विकास के लिए, ज़रूरी वस्तुओं के उत्पादन के ढंग-तरीकों की खोज करना था. आरंभिक काल से, इसी मकसद के लिए, श्रम को अमल में लाने हेतू, सामूहिक सरगर्मी को अपनाते हुए ही भाषा का जन्म हुआ. श्रम के अमल में आने के कारण, मानव पशु जगत से अलग हुआ और चिंतनशील प्राणी के रूप में, इस ब्रह्माण्ड के रंगमंच पर प्रगट हुआ. मानव चिंतन की पहली आवश्यकता या मानवी चिंतन की उत्पति, जिन्दा रहने के लिए उत्पादन की आवश्यकता से ही पैदा हुई.

आज भी मजदूर जो जटिल मशीनरी की बारीकियों को समझ सकता है, खेत मजदूर या किसान (केवल मेहनतकश) अति आधुनिक बीज तैयार कर सकता है, उसे अनपढ, गंवार कहना, अपनी अज्ञानता की नुमाईश करना नहीं तो और क्या है ?

जिस तरह यूरोप में, प्राचीन सामंतशाही को ख़त्म करने के लिए एक दौर गतिमान हुआ जिसके परिणामस्वरूप पुनर्जागरण और प्रबोधन का एक दौर भी गतिमान हुआ और जिसका नतीजा बुर्जुआ इन्कलाब हुए और आधुनिक बुर्जुआ जनतंत्रों की स्थापना हुई थी इसी प्रकार भारत में [ देखें : 1857, आरंभिक देशभक्ति और प्रगतिशीलता PDF File ]भी अपने ढंग की बौद्धिक सरगरमियां चलती रही हैं जिनकी तुलना (हर तुलना लंगडी होती है) कुछ भारतीय विद्वानों ने यूरोप के पुनर्जागरण और प्रबोधन से की है. यहाँ नोट करने वाली बात यह है कि बस्तीवादी घटनावृत ने हमारे देश में उस वक्त जारी इस घटनावृत को, बीच राह में ही कत्ल कर दिया या यूं कहें की उसकी भ्रूण हत्या हो गयी जिसकि परिणति, भारत के यूरोप से अलग किस्म के बौद्धिक अमल से गुजरने में हुई. विशेष ऐतिहासिक परस्थितियों के परिणामस्वरूप, हमारे यहाँ के बुद्धिजीवी, बड़े संभल-संभलकर चलने वाले, अपनी सुख-सुविधाओं के छिनने से डरते हुए, एक विशेष किस्म की सुविधाभोगी मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं.

हम ईमानदार और जिंदा-ज़मीर के बुद्धिजीवियों से अपील करते हैं कि इतिहास की इस सच्चाई को समझने और पचाने की कोशिश करें. मजदूर वर्ग और मेहनतकश वर्गों को , राजनितिक तौर पर शिक्षित करने के लिए, आपकी सेवाओ की ज़रुरत है. आज हमारे देश में और विश्व स्तर पर भी, सर्वहारा नवपुनर्जागरण और प्रबोधन के अमल में बुद्धिजीविओं को अपना फ़र्ज़ पहचानना होगा.

…शेष अगली किश्त

‘कांग्रेस की जीत…अफलातून और सुरेश चिपलूनकर…

कुछ विशेष टिप्पणियों का सामान्य जवाब’

में समाप्य

possibly related posts

कांग्रेस के झूठ को पहचानना जरूरी है

कांग्रेस की जीत पर अफलातून और सुरेश चिपलूनकर के दुःख में हम भी शरीक होते मगर …

गुरुवार, 4 जून 2009

अंतर्जाल, मार्क्सवाद और बौद्धिक वेश्यागमनी

मार्क्सवाद के विकास के लिए ज़रूरी है कि मार्क्सवाद को विकसित करने में मार्क्सवादियों के अब तक के अवदानों का न सिर्फ समाहार किया जाये बल्कि उन्हें आत्मसात भी किया जाये. बदली हुई परस्थितियों का न केवल सही वस्तुगत मूल्यांकन बल्कि सही प्रोग्राम होना भी आवश्यक है. मानव जाति के विकास के ज्ञान का समाहार करने के लिए इन दो सूत्रों – अभ्यास-सिद्धांत-अभ्यास और सिद्धांत-अभ्यास-सिद्धांत, के अलावा अगर कोई तीसरा सूत्र है तो,ज़रूर अवगत कराएं. हम पहले सूत्र प्रति प्रतिबद्ध हैं जबकि दूसरे को छोड़ देते हैं क्योंकि हमारी नज़र में यह मार्क्सवाद न होकर शुद्ध अध्यात्मकवादी फलसफा है जिसका रणक्षेत्र यह संसार न होकर मानव की शुद्ध (?) सोच के आस-पास घूमता है.

दूसरी बात, मार्क्सवाद की आलोचना करते समय क्या कभी किसी ने मार्क्सवादी रचनाओं को उदृत किया है? या फिर शोर्टकट रास्ते द्वारा मार्क्सवाद का निषेध प्रयाप्त है? आज अगर कोई वैज्ञानिक या इंजिनिअर किसी ऑटो में कोई सुधार करना चाहे तो क्या वह लकडी के पहिए से शुरू करेगा या फिर अब तक के भौतिकी के ज्ञान का समाहार करते हुए आगे बढेगा?

हम कहना यह चाहते हैं कि मार्क्सवाद पर न केवल बहस होनी चाहिए, बल्कि पुरजोर बहस होनी चाहिए जिसके लिए अब तक की मार्क्सवादी रचनाओं का अध्ययन-मनन आवश्यक होगा लेकिन ये बहसें अगर अकेडमिक आधार पर होती हैं और अभ्यास से कटी होती हैं तो इसका अंजाम जो होगा वह कुछ भी हो लेकिन मार्क्सवाद नहीं हो सकता. मार्क्सवाद को केवल दिमाग से नहीं उपजाया जा सकता.

तीसरी बात, इस तरह के प्रश्न कि साम्यवाद रूस में क्यों फेल हुआ और यह चीन में क्यों सफल है, क्या इस तरह के प्रश्न उन लोगों के मुहं से अच्छे लगते हैं जो अपने आप को श्री राम विलास शर्मा के शिष्य बताते हैं. विज्ञान की किसी भी शाखा की बहस में भाग लेने से पहले क्या यह ज़रूरी नहीं कि उसकी शब्दाबली के अर्थों का प्रारंभिक ज्ञान आवश्यक हो?

और सबसे बड़ी बात कि जब प्रश्न पूछा जाये तो उसके सन्दर्भ का विस्तृत खुलासा हो क्योंकि अगर प्रश्न सही होगा तभी उसका सही जवाब खोजा जा सकता है जबकि ज्यादातर लोग जुमलों को प्रयोग करते हैं, और जुमले भी ऐसे कि जवाब देने वाले को कुछ नहीं सूझता कि जवाब का सूत्रीकरण क्या हो? और अंतर्जाल पर हिंदी की ऐसी कितनी साइटें हैं जिन्होंने इस विषय को जोरशोर से उठाया हो. अलबता फाकुयामा की तरह ‘ द एंड ऑफ हिस्ट्री’ जैसे जुमले कसने वाले अनगिनत हैं.

मार्क्सवाद के प्रति निष्ठावान लोगों की कमी नहीं है और उन लोगों की भी कोई कमी नहीं है जो छेड़खानी करके मज़े लेने में विश्वास करते हैं. विचारों के लिए विचारों का आदान-प्रदान और वह भी गैर-संजीदा तरीके से, यह सब हद दर्जे की बौद्धिक वेश्यागमनी नहीं तो और क्या है?

ज्ञानदत्त पाण्डेय जी इतने भोले नहीं हो सकते कि वे यह न जानते हों कि किसी भी समाज की अधिरचना को जानने समझने के लिए उसके आधार यानि कि उत्पादन की शक्तियां, उत्पादन के साधनों पर किस वर्ग का अधिकार और इससे उपजे मनुष्यों के आपसी आर्थिक सम्बन्ध कैसे हैं, को जानना ज़रूरी है.

अब अगर आधार समझ आ जाता है तो अधिरचना जिसकी प्रमुख संस्थाएं कार्यपालिका, विधानपालिका, न्यायपालिका, धर्म, दर्शन आदि अगर “इन्स्टीट्यूशनज़” नहीं तो और क्या हैं ? और जहाँ तक इन “इन्स्टीट्यूशनज़” जो कि ऐतिहासिक रूप से पूंजीवाद के पक्ष में खड़े और विकसित हुए हैं का मजदूर वर्ग के पक्ष में खडा होने का सम्बन्ध है,वे इस बात का कोई खुलासा नहीं करते, और कहते हैं कि; [देखें जनतन्तर कथा की अन्तरकथा और फैज-अहमद-फैज का गीत, "हम मैहनतकश जग वालों से......"आलेख की टिप्पणियां]

“सिद्धान्त जब इन्स्टीट्यूशनलाइज हो जाते हैं, तो जड़ हो जाते हैं। उनकी ग्रोथ रुक जाती है।
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण और गति के सिद्धान्त अन्त नहीं थे – भौतिकी अब भी विकसित हो रहा शास्त्र है।
मार्क्स के साथ यह है क्या?”.

लेकिन वे इस बात पर चुप्पी साध लेते हैं कि उपरोक्त वर्णित अधिरचना की संस्थाओं का तोड़ क्या है? क्या ऐसी बहुत सी मार्क्सवादी “इन्स्टीट्यूशनज़” का होना और उन “इन्स्टीट्यूशनज़” के संचालन के लिए एक केन्द्रीय जनतांत्रिक ‘मदर इन्स्टीट्यूशन’ का होना गैर-ज़रूरी है. क्या इन ‘इन्स्टीट्यूशनज़’ और ‘मदर इन्स्टीट्यूशन’ के बिना बुर्जुआ “इन्स्टीट्यूशनज़” का निषेध संभव है?

आपने लिखा “मार्क्सवाद के साथ यह है क्या?” अगर मार्क्सवाद पर आप वाकई फिक्रमंद और संजीदा हैं तो इसकी सेवा में थोड़े से उस मार्क्सवादी तरीके से बहस करें जिस पर लगभग आम सहमति बन चुकी है. हमने आपकी टिपण्णी के प्रत्युत्तर में जवाब देने की कोशिश की है लेकिन यकीन करें , अभी तक हमें आप के प्रश्न से यह नहीं पता चला कि आप असल में पूछना क्या चाहते हैं?

आशा है कि आप मार्क्सवादी तरीके से बहस को आगे बढायेंगे.