शुक्रवार, 5 जून 2009

“कांग्रेस की जीत पर अफलातून और सुरेश चिपलूनकर के दुःख में हम भी शरीक होते मगर …की टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में

इस पोस्ट से सम्बंधित प्राप्त टिप्पणियों के पश्चात् यह ज़रूरी हो गया है कि इस विषय पर वाद-विवाद जारी रखा जाये. चूंकि वर्तमान समाज वर्गों में विभाजित है इसलिए समाज में विचारों और दृष्टिकोण की विभिन्नता होना स्वाभाविक और लाजिम है; कि विचारों की विभिन्नता और उनके बीच जारी संघर्ष विचारों के विकास की ज़रूरी शर्त है. कला नैतिकता, धर्म, राजनीति, दर्शन आदि ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में मौजूद विचार चेतना के ही रूप हैं. हालाँकि सामाजिक चेतना का कोई भी रूप वस्तुगत यथार्थ से स्वतन्त्र नहीं होता बल्कि मानवी दिमाग अन्दर वस्तुगत यथार्थ का ही प्रतिबिम्बन होता है. सर्वहारा वर्ग के नव पुनर्जागरण और सर्वहारा वर्ग के नवप्रबोधन का यह आधुनिक दौर समाज, राजनीति और संस्कृति आदि विषयों पर बुद्धिजीवी वर्ग से पहले के मुकाबले में कहीं अधिक संजीदगी की मांग करता है. अफ़सोस तब होता है जब विद्वान् कहलवाने वाले कुछ सज्जन बिना जाँच-परख किए और निम्न दर्जे के फतवे जारी करते हुए अपनी घोर अज्ञानता और असहनशीलता का प्रगटावा करते हुए दिखाई देते हैं.

लोकसभा चुनावों में जीत-हार के विश्लेषण की अपेक्षा पूंजीवादी जनतंत्र के नाम खेले जाने वाले इस खेल में, आम आदमी के साथ होने वाले छल को समझना ज़्यादा ज़रूरी है. आर्थिक असमानता की इस प्रणाली में राजनितिक अधिकारों की असमानता का जो हश्र होता है, वह किसी व्याख्या की मांग नहीं करता. बेहद खर्चीले इन चुनावों में बड़ी-बड़ी पूंजीवादी पार्टियाँ स्टार खिलाडी की हैसियत से सबसे ज्यादा पैसा बहाती हैं. क्षेत्रीय पूंजीपतियों की पार्टियाँ और निम्न बुर्जुआ विचारधारा की छोटी पार्टियाँ भी अपनी क्षमता से अधिक जोर-आजमाईश करती हैं. वामपंथी पार्टियाँ जो देश के कुछ भागों में असरदायक हैं, ने कभी भी मजदूरों और किसानों के संघर्षों को आर्थिक संघर्षों के दायरे से बाहर नहीं आने दिया. राजनीती के क्षेत्र में भी इनकी कार्रवाही सामाजिक-जनवाद यानिकि छोटे-मोटे आर्थिक सुधारों की लडाई तक सिमिट कर रह गयी है. ‘राज्य’ के चरित्र का ठोस विश्लेषण करके, देश में जारी वर्ग संघर्ष में, अलग-अलग वर्गों की पार्टियों का ठोस विश्लेषण करके, समाजवादी क्रांति का कोई प्रोग्राम ड्राफ्ट करना तो इनके एजेंडा पर रह ही नहीं गया है . पूंजीपति वर्गों द्वारा प्रायोजित किए जाने वाले जनतंत्र के इस खेल में, ये भी अपनी किस्मत-आजमाईश के लिए प्रयत्नशील रहते हैं.

वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के इस दौर में आम लोगों की कंगाली और बदहाली में कई गुना बढोत्तरी हो चुकी है.

देश के कई हिस्सों, विशेषतय: पश्चिमी बंगाल में किसानों में वामपंथ का काफी प्रभाव रहा है. कृषि में पूंजीवादी विकास ने किसानी क्षेत्र में जो आक्रोश पैदा किया है, कभी वामपंथ उस आक्रोश का प्रतिनिधित्व करता रहा है जबकि अब इस किसान वर्ग का प्रतिनिधित्व अन्य निम्न-बुर्जुआ हाथों में जाता हुआ साफ दीखाई दे रहा है.

इन चुनावों में 10 हज़ार करोड़ रूपए से अधिक की राशिः के ‘इन्वेस्ट’ (?) होने की रिपोर्टें हैं. पूंजीवादी ढांचे के अर्न्तगत बड़ा उत्पादक निरंतर छोटे उत्पादक को हड़प करता रहता है लेकिन अपनी विशेष आवश्यकताओं के मद्देनज़र बड़े उत्पादक को, किसी हद तक, छोटे उत्पादक की निरंतर आवश्यकता बनी रहती है. इसलिए नष्ट होने के साथ-साथ छोटा उत्पादक नए-नए रूपों में, जन्म भी लेता रहता है. जहाँ तक प्रतिस्पर्द्धा का सम्बन्ध है, छोटा उत्पादक बड़े उत्पादक के मुकाबले टिक नहीं पाता बल्कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बड़े उत्पादक के रहमोकर्म पर आश्रित और श्रापित होता है. राजनीती में यही अमल सीधे-सरल रूप से तो नहीं पर बड़े ही जटिल ढंग से प्रतिबिंबित होता है. लेकिन पूंजीवाद का बुनियादी स्वभाव यहाँ पर भी कायम रहता है. बड़े पूंजीपतियों की पार्टियों के समक्ष छोटे पूंजीपतियों की पार्टियों का जमें रहना, इतना आसान नहीं होता. पूंजीवादी चुनावों में छोटी पूंजीवादी पार्टियों का वही हाल होता है जो पूंजीवादी उत्पादन के क्षेत्र में छोटे उत्पादकों का होता है. इन चुनावों में करोड़पति प्रतिनिधियों की संख्या पहले से कहीं अधिक है और शेष बचे हुए सांसद करोड़पतियों के बफादार सेवादारों की हैसियत से, ससंद में पहुंचे हैं.

जहाँ तक विश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों का सम्बन्ध है, लगभग सभी संसदमार्गी पार्टियों के बीच आम सहमति बन गयी है – यहाँ तक कि वामपंथी पार्टियाँ भी, सैद्धांतिक विरोध के बावजूद, अमल में इन्हें लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. बंगाल की मिसाल तो सामने है ही, केंद्र में भी वामपंथी पार्टियों की हिमायत से चलने वाली पिछली श्री मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा भी यह अमल निर्बाध रूप से जारी रहा. हाँ, अपने-अपने वोट-बैंक के हिसाब-किताब के साथ-साथ, इन सभी पार्टियों के दरमियान, इन नीतियों को लागू करने सम्बन्धी तौर-तरीकों बारे मतभेद रहे हैं.

संसदीय चुनाव, बहुसंख्यक आबादी की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. इस सारे अमल में, आम आदमी की हालत का अंदाजा पाठक स्वयं लगा सकते हैं! जहाँ तक आम आदमी के स्वयं समझने का सवाल है, वह पहले से कहीं अधिक बेहतर ढंग से समझे हुए है.

जब आम आदमी की बात हो रही हो तो तब हमारे कुछ विद्वान् बुद्धिजीवी सज्जन मेहनतकश वर्ग के बारे में बड़ी ही अजीब किस्म की धारणा पाले बैठे हैं. वे आम लोगों को अनपढ, गंवार या पता नहीं और किन-किन खिताबों से नवाजते हैं. आओ ज़रा हकीकत पर नज़र डालें.

पढाई या ज्ञान का बुनियादी मकसद, जिन्दा रहने या मानव के विकास के लिए, ज़रूरी वस्तुओं के उत्पादन के ढंग-तरीकों की खोज करना था. आरंभिक काल से, इसी मकसद के लिए, श्रम को अमल में लाने हेतू, सामूहिक सरगर्मी को अपनाते हुए ही भाषा का जन्म हुआ. श्रम के अमल में आने के कारण, मानव पशु जगत से अलग हुआ और चिंतनशील प्राणी के रूप में, इस ब्रह्माण्ड के रंगमंच पर प्रगट हुआ. मानव चिंतन की पहली आवश्यकता या मानवी चिंतन की उत्पति, जिन्दा रहने के लिए उत्पादन की आवश्यकता से ही पैदा हुई.

आज भी मजदूर जो जटिल मशीनरी की बारीकियों को समझ सकता है, खेत मजदूर या किसान (केवल मेहनतकश) अति आधुनिक बीज तैयार कर सकता है, उसे अनपढ, गंवार कहना, अपनी अज्ञानता की नुमाईश करना नहीं तो और क्या है ?

जिस तरह यूरोप में, प्राचीन सामंतशाही को ख़त्म करने के लिए एक दौर गतिमान हुआ जिसके परिणामस्वरूप पुनर्जागरण और प्रबोधन का एक दौर भी गतिमान हुआ और जिसका नतीजा बुर्जुआ इन्कलाब हुए और आधुनिक बुर्जुआ जनतंत्रों की स्थापना हुई थी इसी प्रकार भारत में [ देखें : 1857, आरंभिक देशभक्ति और प्रगतिशीलता PDF File ]भी अपने ढंग की बौद्धिक सरगरमियां चलती रही हैं जिनकी तुलना (हर तुलना लंगडी होती है) कुछ भारतीय विद्वानों ने यूरोप के पुनर्जागरण और प्रबोधन से की है. यहाँ नोट करने वाली बात यह है कि बस्तीवादी घटनावृत ने हमारे देश में उस वक्त जारी इस घटनावृत को, बीच राह में ही कत्ल कर दिया या यूं कहें की उसकी भ्रूण हत्या हो गयी जिसकि परिणति, भारत के यूरोप से अलग किस्म के बौद्धिक अमल से गुजरने में हुई. विशेष ऐतिहासिक परस्थितियों के परिणामस्वरूप, हमारे यहाँ के बुद्धिजीवी, बड़े संभल-संभलकर चलने वाले, अपनी सुख-सुविधाओं के छिनने से डरते हुए, एक विशेष किस्म की सुविधाभोगी मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं.

हम ईमानदार और जिंदा-ज़मीर के बुद्धिजीवियों से अपील करते हैं कि इतिहास की इस सच्चाई को समझने और पचाने की कोशिश करें. मजदूर वर्ग और मेहनतकश वर्गों को , राजनितिक तौर पर शिक्षित करने के लिए, आपकी सेवाओ की ज़रुरत है. आज हमारे देश में और विश्व स्तर पर भी, सर्वहारा नवपुनर्जागरण और प्रबोधन के अमल में बुद्धिजीविओं को अपना फ़र्ज़ पहचानना होगा.

…शेष अगली किश्त

‘कांग्रेस की जीत…अफलातून और सुरेश चिपलूनकर…

कुछ विशेष टिप्पणियों का सामान्य जवाब’

में समाप्य

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